Tuesday, February 26, 2008

मन्दिर में दीप की तरह जलने की बात कर


(आज प्राण साहेब की वो ग़ज़ल पेश करता हूँ जो मुझे हमेशा हौसला देती है)

नफरत की हर गली से निकलने की बात कर
तू प्यार वाली राह पे चलने की बात कर

माना की हर तरफ ही अँधेरी है ज़ोर की
उसका न कर ख़याल संभलने की बात कर

आयी हुई मुसीबतें जाती कभी नहीं
ऐसे सभी ख़याल कुचलने की बात कर

चेहरे पे हर घड़ी ही उदासी भली नहीं
ये खुरदरा लिबास बदलने की बात कर

आएगी अपने आप ही चेहरे पे रौनकें
मन्दिर में दीप की तरह जलने की बात कर

पत्थर सा ही बना रहेगा कब तलक, मियाँ
तू मोम सा कभी तो पिघलने की बात कर

ऐ "प्राण" तेरे होने का एहसास हो जरा
अम्बर में मेघ जैसा मचलने की बात कर

Friday, February 22, 2008

अब्र लेकर घूमता है ढेर सा पानी मगर



मान लूँ मैं ये करिश्मा प्यार का कैसे नहीं
वो सुनाई दे रहा सब जो कहा तुमने नहीं

इश्क का मैं ये सलीका जानता सब से सही
जान देदो इस तरह की हो कहीं चरचे नहीं

तल्ख़ बातों को जुबाँ से दूर रखना सीखिए
घाव कर जाती हैं गहरे जो कभी भरते नहीं

अब्र* लेकर घूमता है ढेर सा पानी मगर
फायदा कोई कहाँ गर प्यास पे बरसे नहीं

छोड़ देते मुस्कुरा कर भीड़ के संग दौड़ना
लोग ऐसे ज़िंदगी में हाथ फ़िर मलते नहीं

खुशबुएँ बाहर से वापस लौट कर के जाएँगी
घर के दरवाजे अगर तुमने खुले रक्खे नहीं

जिस्म के साहिल पे ही बस ढूंढ़ते उसको रहे
दिल समंदर में था मोती तुम गए गहरे नहीं

यूँ मिलो "नीरज" हमेशा जैसे अन्तिम बार हो
छोड़ कर अरमाँ अधूरे तो कभी मिलते नहीं

*अब्र = बादल

{ भाई पंकज सुबीर को ग़ज़ल पढने कर मंजूर करने का तहे दिल से शुक्रिया}

Tuesday, February 19, 2008

हरी धरती, खुले - नीले गगन को छोड़ आया हूँ




श्रधेय महावीर जी ने अपने कमेंट में प्राण साहेब की एक ग़ज़ल " वतन को छोड़ आया हूँ " का जिक्र किया है. आज ये ग़ज़ल आप सब के लिए फ़िर से प्रस्तुत कर रहा हूँ. ये बेमिसाल ग़ज़ल प्रवासी भारतीयों के अतिरिक्त उन सब लोगों के लिए भी है जो अपनी मिट्टी से दूर दूसरे शहरों में जीवन यापन के लिए बसे हुए हैं.

हरी धरती, खुले - नीले गगन को छोड़ आया हूँ
की कुछ सिक्कों की खातिर मैं वतन को छोड़ आया हूँ

विदेशी भूमि पर माना लिए फिरता हूँ तन लेकिन
वतन की सौंधी मिट्टी में मैं मन को छोड़ आया हूँ

पराये घर में कब मिलता है अपने घर के जैसा सुख
मगर मैं हूँ की घर के चैन - धन को छोड़ आया हूँ

नहीं भूलेंगी जीवन भर वो सब अठखेलियाँ अपनी
जवानी के सुरीले बांकपन को छोड़ आया हूँ

समाई है मेरे मन में अभी तक खुशबुएँ उसकी
भले ही फूलों से महके चमन को छोड़ आया हूँ

कभी गाली कभी टंटा कभी खिलवाड़ यारों से
बहुत पीछे हँसी के उस चलन को छोड़ आया हूँ

कोई हमदर्द था अपना कोई था चाहने वाला
हृदय के पास बसते हमवतन को छोड़ आया हूँ

कहाँ होती है कोई मीठी बोली अपनी बोली सी
मगर मैं "प्राण" हिन्दी की फबन को छोड़ आया हूँ

(ये ग़ज़ल प्राण शर्मा जी की पुस्तक "ग़ज़ल कहता हूँ" से साभार ली गई है)

Thursday, February 14, 2008

फूल देखूं जिधर खिलें

( भाई पंकज सुबीर ने इस ग़ज़ल की नोंक-पलक सवारने में अपना अमूल्य योगदान दिया है)

साल दर साल ये ही हाल रहा
तुझसे मिलना बड़ा सवाल रहा

याद करना खुदा को भूल गए
नाम पर उसके बस बवाल रहा

ना संभाला जो पास है अपने
जो नहीं उसका ही मलाल रहा

यूं जहाँ से निकाल सच फैंका
जैसे सालन में कोई बाल रहा

क्या ज़रूरत उन्हें इबादत की
जिनके दिल में तेरा खयाल रहा

ऐंठता भर के जेब में सिक्के
सोच में जो भी तंगहाल रहा

दिल की बातें हुई तभी रब से
बीच जब ना कोई दलाल रहा

चाँद में देख प्यार की ताकत
जब समंदर लहर उछाल रहा

फूल देखूं जिधर खिलें "नीरज"
ये तेरी याद का कमाल रहा

Thursday, February 7, 2008

ऐ खुशी तू शम्‍अ सी है


(प्राण साहेब की एक छोटी बहर की ग़ज़ल)

तुमसे दिल में रोशनी है
ऐ खुशी तू शम्‍अ सी है

छोड़ जाती है सभी को
ज़िंदगी किसकी सगी है

आप की सांगत है प्यारी
गोया गुड़ की चाशनी है

बारिशों की नेमतें हैं
सूखी नदिया भी बही है

मिटटी के घर हों सलामत
कब से बारिश हो रही है

नाज़ क्योंकर हो किसी को
कुछ न कुछ सबमें कमी है

कौन अब ढ़ूढ़े किसी को
गुमशुदा हर आदमी है

बांट दे खुशियाँ खुदाया
तुझको कोई क्या कमी है

Tuesday, February 5, 2008

घोंसलों में परिंदे



खार राहों के फूलों में ढलने लगे
याद करके तुझे हम जो चलने लगे

सब नियम कायदे यार बह जायेंगे
इश्क का गर ये दरिया मचलने लगे

दुश्मनों से निपटना तो आसान था
तीर तो अपने घर से ही चलने लगे

घोंसलों में परिंदे थे महफूज़ पर
आसमाँ जब दिखा तो उछलने लगे

बस समझना की उसकी गली आ गयी
साँस रुकने लगे जिस्म जलने लगे

दिल तो बच्चे सा सीधा लगे है मगर
हाल करता है क्या जब मचलने लगे

इतने मासूम हैं हम किसे क्या कहें
फ़िर से बातों में उनकी बहलने लगे

तेरी चाहत का मुझपे असर ये हुआ
दिल में फूलों के गुलशन से खिलने लगे

वक्त का खेल देखो तो 'नीरज' जरा
जिनकी चाहत थे उनको ही खलने लगे

Friday, February 1, 2008

फ़िर घटा याद की है गहराई





कुछ सदा में रही कसर शायद
वरना जाते वहीं ठहर शायद

दर्द तन्हाई का मत पूछ मुझे
उससे बदतर नहीं कहर शायद

तेज़ थी धूप छा गयी बदली
तेरे आने का है असर शायद

बोलती बंद है अभी उसकी
आईना आ गया नज़र शायद

गीत पत्थर भी हैं लगे गाने
तेरे छूने की है ख़बर शायद

सिल गए होंठ दुश्मनों के तभी
जबसे उसने कसी कमर शायद

फ़िर घटा याद की है गहराई
अब करेगी ये आँख तर शायद

सच अकेला चला सदा 'नीरज'
नहीं आसान ये डगर शायद