Monday, January 16, 2012

किताबों की दुनिया - 65

पहले की बात है मैंने एक शेर कहा था :
संजीदगी, वाबस्तगी, शाइस्तगी, खुद-आगही
आसूदगी, इंसानियत, जिसमें नहीं, क्या आदमी
(वाबस्तगी: सम्बन्ध, लगाव, शाइस्तगी: सभ्यता, खुद-आगही: आत्मज्ञान, आसूदगी:संतोष)

कहने बाद मैंने सोचा के इस शेर में जो आदमी की इतनी खूबियाँ बयाँ की हैं वो कहीं एक साथ मिलती भी हैं? मेरे मन के अन्दर से ही जवाब आया के" प्यारे मिलती तो हैं लेकिन बहुत मुश्किल से मिलती हैं". कोई इंसान ऐसा नहीं जिसमें कोई एब ना हो बल्कि मुझे लगता है "परफेक्ट" शब्द इंसान के लिए बना ही नहीं है, फिर भी अगर हमें किसी इंसान में एब दिखाई नहीं देते तो समझिये वो उसकी अच्छाइयों से दब गए हैं. ऐसे ही एक अच्छे इन्सान और उनकी उतनी ही अच्छी शायरी की किताब का जिक्र आज हम करने जा रहे हैं.

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें

हुक्मरानी हर तरफ बौनों की, उनका ही हजूम
हम ये अपने कद की इन ऊचाइयों का क्या करें

नाज़ तैराकी पे अपनी कम न था हमको मगर
नरगिसी आँखों की उन गहराइयों का क्या करें

बौनों के हुजूम में ऊंचा कद रहने वाले इस युवा शायर को आप मेरे ब्लॉग पर पहले पढ़ चुके हैं इन का नाम है श्री "अखिलेश तिवारी" जिनकी किताब "आसमां होने को था" का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं.


था रवानी से ही कायम उसकी हस्ती का सुबूत
गर ठहर जाता तो फिर दरिया कहाँ होने को था

खुद को जो सूरज बताता फिर रहा था रात को
दिन में उस जुगनू का अब चेहरा धुआं होने को था

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था

इंसान को हम उसकी सोच से पहचान सकते हैं जो इंसान ऐसे खूबसूरत शेर कहता है वो कैसा होगा ये पहचानना कोई मुश्किल काम नहीं है. अच्छी शायरी के लिए मेरे हिसाब से इंसान का अच्छा होना लाज़मी है. बुरे लोगों द्वारा की गयी अच्छी बातों में असर नहीं होता. मेरी खुशकिस्मती है कि मैं तो उनसे मिला हूँ लेकिन जो नहीं मिले हैं वो उनकी इस किताब से उनके बारे में भली भांति जान लेंगे.

नदी के ख़्वाब दिखायेगा तश्नगी देगा
खबर न थी वो हमें ऐसी बेबसी देगा

नसीब से मिला है इसे हर रखना
कि तीरगी में यही ज़ख्म रौशनी देगा

तुम अपने हाथ में पत्थर उठाये फिरते रहो
मैं वो शजर हूँ जो बदले में छाँव ही देगा

पत्थर के बदले छाँव देने वाले इस बेहतरीन शायर से मेरी मुलाकात जयपुर में पिछले आठ वर्षों से लगातार आयोजित हो रही "काव्य लोक " की एक गोष्ठी में हुई. जिसका जिक्र मैंने अपनी एक पुरानी पोस्ट में विस्तार से किया भी है. धीर गंभीर व्यक्तित्व के स्वामी आलोक इस बात की तस्कीद करते हैं के जहाँ गहराई होती है वहां का समंदर शांत होता है. जितने सहज वो खुद हैं उतनी ही सहज उनकी शायरी है. वो अपने आस पास में जो देखते हैं सोचते हैं उसी को शायरी में ढाल देते हैं. उनकी शायरी में ख़्वाब नहीं हकीकत झलकती है.

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो

अब ख़त्म भी हो गुज़रे जमाने का तज़्किरा
इस तीरगी में कुछ तो उजालों की बात हो

जिनको मिले फरेब ही मंजिल के नाम पर
कुछ देर उनके पाँव के छालों की बात हो

बीना, जिला सागर, मध्य प्रदेश में 27-05-1966 को जन्में " अखिलेश", रिजर्व बैंक आफ इण्डिया की जयपुर शाखा में काम करते हैं और पिछले बीस वर्षों से शायरी कर रहे हैं समाज में हो रहे बदलावों पर उनकी नज़र रहती है, उसकी बुराइयों पर वो झल्ला कर विरोध में नारे नहीं लगाते बल्कि अपनी शायरी से उस पर विजय प्राप्त की बात करते हैं. लोगों से अपनी सोच को बदलने की बात भी वो बहुत विनम्र लेकिन असरदार अंदाज़ में करते हैं.

पानी में जो आया है तो गहरे भी उतर जा
दरिया को खंगाले बिना गौहर न मिलेगा

दर-दर यूँ भटकता है अबस जिसके लिए तू
घर में ही उसे ढूंढ वो बाहर न मिलेगा

ऐसे ही जो हुक्काम के सजदों में बिछेंगे
काँधे पे किसी के भी कोई सर न मिलेगा

महफूज़ तभी तक है रहे छाँव में जब तक
जो धूप पड़ी मोम का पैकर न मिलेगा

‘अखिलेश’ ग़ज़ल की मर्यादा में रह कर ज़िन्दगी की गुलकारियां अपनी ग़ज़लों में देखना चाहते हैं, उन्हें बहती नदी सी ग़ज़ल पसंद है इसलिए वो भाषाई पत्थर डाल कर उसके प्रवाह को अवरुद्ध करने के हामी नहीं हैं. उन्होंने इस किताब की अपनी एक अति संक्षिप्त भूमिका में कहा है " ग़ज़लें कह लेने के बाद लगता है कुछ खो गया था जिसे पा लिया है परन्तु ये ख्याल भी बहुत देर तक काइम नहीं रह पाता, भटकन फिर सताने लगती है एक नयी ग़ज़ल होने तक. ये सिलसिला बदस्तूर जारी है " हम पाठक दुआ करते हैं के ये सिलसिला आगे भी यूँ ही बना रहे ताकि हमें उनके दिलकश अशआर पढने को मिलते रहें

हम उन सवालों को लेकर उदास कितने थे
जवाब जिनके यहीं आसपास कितने थे

हंसी, मज़ाक, अदब, महफ़िलें, सुख़नगोई
उदासियों के बदन पर लिबास कितने थे

पड़े थे धूप में एहसास के नगीने सब
तमाम शहर में गोहरशनाश कितने थे

खूबसूरत और बिलकुल नए अंदाज़ के कलेवर वाली इस किताब को जयपुर के "लोकायत प्रकाशन" ने प्रकाशित किया है. इस किताब की प्राप्ति और भाई अखिलेश को दाद देने के लिए सर्वश्रेष्ठ बात तो ये होगी कि आप उनसे उनके मोबाइल नंबर +919460434278 पर बात करें. दूसरा और दुविधापूर्ण रास्ता है के आप "लोकायत प्रकाशन" के करता धरता श्री "शेखर जी" जो दिलचस्प व्यक्तित्व के मालिक हैं, से उनके मोबाईल न.+919461304810 पर, जो अधिकतर उनके कान से चिपका रहता है, बात कर मंगवा सकते हैं. जो नहीं जानते उनकी सूचना के बता दूं की "लोकायत प्रकाशन" की मोती डूंगरी रोड, जयपुर में स्थित छोटी सी लेकिन गागर में सागर वाली उक्ति को चरितार्थ करती दुकान अब विस्तार ले चुकी है और उसकी एक शाखा सांगानेरी गेट पर भी खुल गयी है. जयपुर वासी या वो जिनके प्रेमी जयपुर वासी हैं ये किताब वहां से ले सकते हैं या मंगवा सकते हैं. जिन शायरी प्रेमियों को ये किताब अखिलेश जी द्वारा मिली है या मिलेगी उनसे गुज़ारिश है के वो इसे पढ़ कर ऐसे बाकमाल शायर को दाद दें और उनका हौसला बढ़ाएं.
चलते चलते आईये उनकी एक ग़ज़ल के चन्द अशआर और पढ़ते चलें:-

तू इश्क में मिटा न कभी दार पर गया
नायब ज़िन्दगी को भी बेकार कर गया

मिटटी का घर बिखरना था आखिर बिखर गया
अच्छा हुआ कि ज़ेहन से आंधी का डर गया

बेहतर था कैद से ये बिखर जाना इसलिए
ख़ुश्बू की तरह से मैं फिजा में बिखर गया

'अखिलेश' शायरी में जिसे ढूंढते हो तुम
जाने वो धूप छाँव का पैकर किधर गया.

63 comments:

रश्मि प्रभा... said...

हम उन सवालों को लेकर उदास कितने थे
जवाब जिनके यहीं आसपास कितने थे
nagine dhoondh ker hamen bhi dete hain , bahut bahut shukriyaa

vikram7 said...

अब ख़त्म भी हो गुज़रे जमाने का तज़्किरा
इस तीरगी में कुछ तो उजालों की बात हो
वाह ,अति सुन्दर

vikram7: जिन्दगी एक .......

अनुपमा पाठक said...

मिटटी का घर बिखरना था आखिर बिखर गया
अच्छा हुआ कि ज़ेहन से आंधी का डर गया
वाह!!!
सुन्दर पुस्तक परिचय!
आपका हर पोस्ट संग्रहणीय होता है...

सदा said...

मिटटी का घर बिखरना था आखिर बिखर गया
अच्छा हुआ कि ज़ेहन से आंधी का डर गया
वाह ...आपकी कलम से एक बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Anupama Tripathi said...

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था
बहुत सुंदर शायरी ...
लाजवाब हर शेर ...!!

shubhkamnayen.

जयकृष्ण राय तुषार said...

भाई नीरज जी अखिलेश तिवारी को पढ़ना बहुत अच्छा लगा आप दोनों ही सज्जनों को बधाई और शुभकामनाएं |

Unknown said...

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो

अब ख़त्म भी हो गुज़रे जमाने का तज़्किरा
इस तीरगी में कुछ तो उजालों की बात हो


kya kamaal hota hein shayari me us vkt hi pta chalta he shayad jab koi ashyaar khe k dekh, tere aks me mein hun or mere aks me tu hein.

vandana gupta said...

हंसी, मज़ाक, अदब, महफ़िलें, सुख़नगोई
उदासियों के बदन पर लिबास कितने थे
नीरज जी इतने बढिया शायर से मिलवाने के लिये हार्दिक आभार्………सच मे नायाब मोती ढूँढना कोई आपसे सीखे।

Mayank Awasthi said...

नीरज भाई !! आपको असीमित बधाइयाँ -- इस प्रस्तुति के लिये और शायर और शायरी दोनो के उत्कृष्ट मूल्याँकन और सार्थक विवेचना के लिये -- तब्सरानिगार तो खैर और भी बहुत से है लेकिन जिस खूबी के साथ आप तनक़ीद करते हैं उसकी मिसाल नहीं !! सिर्फ बलवंत सिह ( प्रकाश पंडित जी में यह हुनर था कि वो शाय्र और शायरी दोनो को सफलतापूर्वक प्रस्तुत कर देते हैं -- यह पुस्तक अन्य पुस्तकों से इस मायने में भिन्न है कि इसका प्रकाशन औपचारिकता भी थी और आवश्यकता भी । यह पुस्तक औपचारिकता इसलिये है कि ग़ज़ल की दुनिया में अखिलेश का नाम जाना पहचाना और सम्मान के साथ लिया जाने वाला नाम है क्योंकि अखिलेश की ग़ज़लें पिछले 15 -16 बरसो से पत्रिकाओं मुशायरों और अदब के अन्य मंचों दूरदर्शन आकाशवाणी इत्यादि में पूरे शबाब और असर के साथ गूँजती रही हैं। यह पुस्तक आवश्यक इसलिये थी कि यह इनका पहला संकलन है और अदबी सफ़र के मरहलों में इंतख़ाब शुमार होते हैं और मंज़िले- मक़्सूद पर आपका दीवान तैयार होता है । यानी यह एक मरहला उन्होंने सर किया है ।
अपने ऊंचे मेयार , संश्लिष्ट भाषा , पुरअसर बयान और विविध रंगों के कारण पुस्तक विशिष्ट बन गयी है और लम्बे अर्से तक ग़ज़ल की दुनिया में रेखाँकित की जायेगी ।-मयक

Patali-The-Village said...

सशक्त और प्रभावशाली रचना

Amrita Tanmay said...

अच्छा लगा अखिलेश तिवारी को पढ़ना.. शुभकामनाएं |

दिगम्बर नासवा said...

जिनको मिले फरेब ही मंजिल के नाम पर
कुछ देर उनके पाँव के छालों की बात हो

जितना हुनर अखिलेश जी की शायरी में है ... उतना ही हुनर आपकी बयानगी में भी है ...
बहुत ही खूबसूरत, बेजोड और बेमिसाल शेरों को चुना है आपने लाजवाब शायर के परिचय में ... सुभान अल्ला ...

दीपिका रानी said...

खुद को जो सूरज बताता फिर रहा था रात को
दिन में उस जुगनू का अब चेहरा धुआं होने को था
वाह! वाह! बेहतरीन किताब की बेहतरीन समीक्षा

रेखा said...

पानी में जो आया है तो गहरे भी उतर जा
दरिया को खंगाले बिना गौहर न मिलेगा
वाह ...सुन्दर पंक्तियाँ .
अखिलेशजी से परिचय कराने के लिए आभार आपका .

राजेश उत्‍साही said...

एक और नए शायर से मिलना अच्‍छा लगा।

प्रवीण पाण्डेय said...

सब एक से एक जबरजस्त, आभार परिचय कराने का।

नीरज गोस्वामी said...

Comment received on facebook from Gyan Dutt Pandey Ji:-

पानी में जो आया है तो गहरे भी उतर जा
दरिया को खंगाले बिना गौहर न मिलेगा

अच्छी पंक्तियाँ। '

दर्शन कौर धनोय said...

पत्थर के बदले छाँव देने वाले इस बेहतरीन शायर से आज आपने जो रूबरू करवाया हैं उसके लिए नीरज जी आपका बहुत -बहुत धन्यवाद ...अखलेश जी की शायरी और उसको पेश करने का आपका एक अलग ही अंदाज हैं .. दोनों नायब हैं ...और इसीके लिए आपके ब्लॉग पर हमेशा आने को खुद को रोक ही नहीं पाती हूँ ..मुझे हमेशा आपकी पोस्ट का इन्तजार रहता हैं ...

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था

तुम अपने हाथ में पत्थर उठाये फिरते रहो
मैं वो शजर हूँ जो बदले में छाँव ही देगा

मिटटी का घर बिखरना था आखिर बिखर गया
अच्छा हुआ कि ज़ेहन से आंधी का डर गया

इंसान को हम उसकी सोच से पहचान सकते हैं जो इंसान ऐसे खूबसूरत शेर कहता है वो कैसा होगा ये पहचानना कोई मुश्किल काम नहीं है. अच्छी शायरी के लिए मेरे हिसाब से इंसान का अच्छा होना लाज़मी है. बुरे लोगों द्वारा की गयी अच्छी बातों में असर नहीं होता. ..एकदम सच कहा ...ईश्वर आपकी लेखनी की उम्र -दराज़ करे .....

Suman said...

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था
बिलकुल सही ......एकसे एक पंक्ति लाजवाब .........
आभार परिचय कराने का !

आनंद said...

नाज़ तैराकी पे अपनी कम न था हमको मगर
नरगिसी आँखों की उन गहराइयों का क्या करें....

आदरणीय .... बहुत लाभ होता है ऐसी अनमोल जानकारियों से ...ढूँढता हूँ कि दिल्ली में यह पुस्तक कहाँ मिल सकती है !!

PRAN SHARMA said...

Ek aur gazal sangarah se ru-bu-ru
karwaane ke liye aapkaa haardik
saadhuwaad .

vidya said...

बहुत बहुत बढ़िया..
रोचक प्रस्तुति के साथ अच्छी पुस्तक से परिचय...
शुभकामनाएँ...

Shiv said...

आपके सौजन्य से ही अखिलेश जी की यह किताब मैंने पूरी पढ़ी. ग़ज़ल के शेर एक से बढ़कर एक हैं. कई शेर मेरी ट्विटर टाइमलाइन पर भी दिखाई देंगे जिन्हें पढ़ते हुए मैंने ट्वीट किया था और वहाँ बहुत लोगों ने उन शेर कोप पसंद किया. छोटे बहर कि उनकी एक पूरी ग़ज़ल भी ट्विटर पर डाल रखी है मैंने. शायद सबसे कठिन काम होता है सरल लिखना और अखिलेश जी ने जिस सरलता से अपनी बात ग़ज़लों में कही हैं, वह अद्भुत है.

आपकी इस श्रृंखला में एक और बढ़िया किताब का परिचय है. यह किताब ग़ज़ल के प्रेमियों को ज़रूर पढ़नी चाहिए.

अरुण चन्द्र रॉय said...

नीरज जी वर्ष भर आप एक से एक नायब ग़ज़ल संग्रह और गज़लकार लेकर प्रस्तुत होते हैं.. यह कड़ी साहित्य की पत्रिकों में भी लब्ध नहीं है.. आज फिर एक बेहतरीन प्रतुती है आपकी. लेकिन अभी जो ब्लॉग मूल्यांकन हो रहा है परिकल्पना द्वारा उसमे आपका नाम नहीं देखकर लगा कि वह विश्लेषण अधूरा है.... वर्ष २०१२ में आप और भी नए हीरे लायें.. यही शुभकामना है...

Rohitas Ghorela said...

मैंने पिछली बार भी कहा था की मैं इस ब्लॉग का हर पल इंतजार करता रहता हूँ...और हमेशा की तरह इस बार भी इंतजार का फल मीठा निकला....


अब ख़त्म भी हो गुज़रे जमाने का तज़्किरा
इस तीरगी में कुछ तो उजालों की बात हो

जिनको मिले फरेब ही मंजिल के नाम पर
कुछ देर उनके पाँव के छालों की बात हो

पानी में जो आया है तो गहरे भी उतर जा
दरिया को खंगाले बिना गौहर न मिलेगा

तुम अपने हाथ में पत्थर उठाये फिरते रहो
मैं वो शजर हूँ जो बदले में छाँव ही देगा

मिटटी का घर बिखरना था आखिर बिखर गया
अच्छा हुआ कि ज़ेहन से आंधी का डर गया



नीरज जी आपको कोटि कोटि धन्यवाद |
मैं आपको मेरे ब्लॉग पर सादर आमन्त्रित करता हूँ.....

कुमार संतोष said...

Waah...!!
Shaandaar prastuti.

Aabhaar...!!

Manish Kumar said...

अच्छा लगा अखिलेश जी को पढ़ना !

kshama said...

Ye duniya waqayee bahut nirali hai!

شہروز said...

ऐसा हरगिज़ नहीं क़ि आपकी पोस्ट न पढ़ा हो. ज़रूर है क़ि अपनी राय अदना नहीं दे सका.सबब बना मसरूफियत.अखिलेश साहब के इस शेर ने विवश कर दिया:
रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें

तिलक राज कपूर said...

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो

जैसी ग़ज़ल कहने वाले शायर को परिचय की ज़रूरत ही कहॉं। उम्‍दा ग़ज़लें, ऐसी ग़ज़लें कि:
परिचय हरेक शेर से देता है खुद-ब-खुद
जिसकी हरिक ग़ज़ल में सवालों की बात हो।

'साहिल' said...

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था

ऐसे अशआर कहने का ख्वाब हर शायर देखता है, मगर बहुत कम कह पाते हैं!

Atul Shrivastava said...

सुंदर पुस्‍तक चर्चा।
आपने किताब की जो रचनाएं प्रस्‍तुत की हैं वो शानदार हैं, इससे किताब कितनी बेमिसाल होगी इसका अंदाज लगाया जा सकता है...
आभार...।

ऋता शेखर 'मधु' said...

हम उन सवालों को लेकर उदास कितने थे
जवाब जिनके यहीं आसपास कितने थे

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था

सभी शेर बहुत अच्छे लगे|
खूबसूरत रचनाएँ पढ़वाने के लिए आभार!

अशोक सलूजा said...

नीरज जी , वाह: एक से बड कर एक ....
किसी एक का ज़िक्र ...दूसरे के साथ ..नाइंसाफी |
पढवाने के लिए आभार !
शायर साहब को बधाई !

दीपक बाबा said...

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो


भूख और निवालों का हिसाब...
पता नहीं कब पूरा होगा..

सुंदर प्रस्तुति के लिए साधुवाद.

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

अखिलेश जी की गज़लें सीधी दिल में उतर गईं, परिचय कराने का शुक्रिया.

नीरज गोस्वामी said...

Received on mail:-


Om Prakash sapra omsapra@gmail.com to me
show details 18:56 (2 minutes ago)
shri neeraj ji
thans fo giving such nice comments abt akhlesh tiwari ji and his poetry,
he has recently posed one copy of his book to me
and also to Shri Prof Kuldip salil ji also.
Potery of shri akhlish is quite impressive and volatile, especially these lines :-

नदी के ख़्वाब दिखायेगा तश्नगी देगा
खबर न थी वो हमें ऐसी बेबसी देगा

नसीब से मिला है इसे हर रखना
कि तीरगी में यही ज़ख्म रौशनी देगा

तुम अपने हाथ में पत्थर उठाये फिरते रहो
मैं वो शजर हूँ जो बदले में छाँव ही देगा

please convey my gud wishes and congrats to him,
regds,
-om sapra, delhi-9
9818180932

Rajesh Kumari said...

vaah kitni khoobsurat sher padhne ko mile.akhilesh ji ke kayal ho gaye hum to.unki jaankari dene ke liye aabhar.

शारदा अरोरा said...

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें

हुक्मरानी हर तरफ बौनों की, उनका ही हजूम
हम ये अपने कद की इन ऊचाइयों का क्या करें

नसीब से मिला है इसे हर रखना
कि तीरगी में यही ज़ख्म रौशनी देगा
aaha , aise shero ke liye shayar ko bahut bahut badhaaeeaur aapka shukriya ...

Anonymous said...

कुछ शेर छाँटना बहुत मुश्किल था........सारे ही शेर बेहतरीन है......कुछ आग सी है अखिलेश जी के शेरोन में.......बहुत पसंद आये......शुक्रिया आपका|

नीरज गोस्वामी said...

RECEIVED ON E-MAIL:-

शुक्रिया , नीरज जी, अखिलेश तिवारी जी का कलाम बहुत पसंद आया, "आसमाँ होने को था" का ऑर्डर शेखर जी को बज़रिये फोन कर दिया है.



-मंसूर अली हाश्मी

०९८९३८३३२८६

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

'अखिलेश' शायरी में जिसे ढूंढते हो तुम
उसे पा लिया है हमने इस सुंदर सारगर्भित समीक्षा में

Kunwar Kusumesh said...

समीक्षा उतनी ही बेहतरीन जितने बेहतरीन ग़ज़ल संग्रह के शेर.
अखिलेश तिवारी जी को पुस्तक की बधाई.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

अखिलेश जी को जानना और पढना अच्छा लगा. धन्यवाद.

Maheshwari kaneri said...

अखिलेश जी को जानना बहुत अच्छा लगा.. धन्यवाद.

Kailash Sharma said...

मिटटी का घर बिखरना था आखिर बिखर गया
अच्छा हुआ कि ज़ेहन से आंधी का डर गया

....लाज़वाब! अखिलेश जी के बारे में जानना बहुत अच्छा लगा...आभार

Bharat Bhushan said...

अखिलेश जी की रचनात्मकता से परिचित कराने के लिए आपका आभार. जितना आपके यहाँ पढ़ा है वह अखिलेश के आसमाँ का एक बहुत ही खूबसूरत हिस्सा है. अखिलेश जी को बधाई.

Urmi said...

अखिलेश जी से रूबरू करवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद! सभी शेर बहुत बढ़िया लगा! सुन्दर प्रस्तुती!

sushila said...

आपके ब्लोग पर पहली बार आई हूँ। बेहद खुशी के साथ अफ़सोस भी हो रहा है कि आज तक इस बेमिसाल ब्लोग, बेमिसाल साहित्यकारों और रचनाओं से वंचित रही।
सभी गज़लें और आपका आलेख बेहतरीन था किंतु अखिलेश जी की गज़लें तो.....लाजवाब !

डॉ.मीनाक्षी स्वामी Meenakshi Swami said...

अच्छी पुस्तक पर सार्थक चर्चा।

नीरज गोस्वामी said...

Received on mail from Mr.Vishal


Uncle ji namaste..

Jane kyon pinjare ki chhat ko aasman kahane laga
Wo parinda jiska sara aasman hone ko tha. Bahut achchha laga.

Vishal

मनोज कुमार said...

लाजवाब प्रस्तुति! एक से बढ़कर एक पंक्तियां।

निर्मला कपिला said...

साहित्य प्रेमिओं को एक और लाजवाब तोहफा। इस पुस्तक से रूबरू करवाने के लिये धन्यवाद।

alka mishra said...

मैं पूरी किताब पढ़ चुकी हूँ ,आपने बेहतर समीक्षा की है नीरज जी.

Onkar said...

bahut sundar

नीरज गोस्वामी said...

MSG FROM AKHILESH TIWARI JI:-

भाई साहब
नमस्कार
अपनी किताब पर तमाम मित्रों के प्यारे-प्यारे कमेंट्स पढ़कर अभिभूत हूँ . मेरी मुश्किल ये है की मुझे ब्लॉग के सभी दोस्तों को केवल पारंपरिक शुक्रिया कहकर ही काम चलाना है .मेरी भावनाओं को पहुँचाने में भी एक बार फिर मदद करें. शब्द लाचार हैं :-.

लफ़्ज़ों में कहाँ ढलने थे उस बात के पहलू
बस चुप ने संभाले हैं बयानात के पहलू

अखिलेश तिवारी

नीरज गोस्वामी said...

MSG RECEIVED ON MAIL:-

एक बेहतरीन संकलन से रूबरु होने का मौका मिला पाठक इस बात को लेकर किंकर्तव्यविमूढ हो जाता है कि जो शेर पढ रहा है वो बेहतर है या इससे पहले पढा वो बेहतर है या अगला बेहतर है

नदी के ख़्वाब दिखायेगा तश्नगी देगा
खबर न थी वो हमें ऐसी बेबसी देगा

गुरु - गोविन्द की तर्ज पर बेहतरीन संकलन से परिचित कराने के लिए गोस्वामीजी का धन्यवाद.

रघुराज शर्मा

मुकेश कुमार तिवारी said...

सर जी,

अबसे मैं आपको यही संबोधन दिया करूंगा शायद आपको कोई आपत्ती नही हो?

अखिलेश जी से बात करूंगा पहले ऐसी ही तरह से श्री मनोज अबोध जी से जुड़ पाया हूँ।

बहुत ही खूबसूरत शे’र कहा है :-

ऐसे ही जो हुक्काम के सजदों में बिछेंगे
काँधे पे किसी के भी कोई सर न मिलेगा

हमारे राजनैतिक हालातों के मुँह पर तमाचा जड़ता सा लगा यह कहना कि :-

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो

सर जी, आपको धन्यवाद इतनी खूबसूरत गज़लों से परिचय कराने के लिए।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

सूत्रधार said...

आपके इस उत्‍कृष्‍ठ लेखन के लिए आभार ।

Udan Tashtari said...

अच्छी लगी समीक्षा-बेहतरीन शेर कहे हैं. आभार जानकारी के लिए.

vidya said...

आज कविता कोष में आपकी ढेर सी रचनाएँ पढ़ी...
दिल चाहा आपको फिर से बधाई दूँ...
आप क्या अपनी सभी नयी रचनाएँ उसमे जोड़ रहे हैं??
सादर.

Ankit said...

अखिलेश तिवारी जी अपनी किताब "आसमां होने को था" में अपने शेरों से एक अलग असर छोड़ जाते हैं.
अब इन्ही चार मिसरों को ले लीजिये;
रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें

हुक्मरानी हर तरफ बौनों की, उनका ही हजूम
हम ये अपने कद की इन ऊचाइयों का क्या करें
वाह वा

और जिस शेर ने इस किताब को नाम दिया है वो तो लाजवाब है,
"जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था"

शेर दर शेर उतरने में उनकी शायरी की गहराइयाँ दिख रही हैं.

अखिलेश जी बहुत बहुत बधाइयाँ. आपकी किताब बुलंदियों को छुएँ यही दुआ करता हूँ. आमीन

Aadil Raza Mansoori said...

लेश की किताब पर मैं अपनी राय बुहत पहले दे चूका हूँ / अखिलेश मेरे नज़दीक़ उन शाइरों में से हैं , जो अपनी शायरी की खूबियां और कमियां दोनों जानते हैं और वो अपने कलाम को जीते हैं , एक बेहद ख़ूबसूरत शाइर .....