Monday, October 29, 2012

किताबों की दुनिया - 75

आज के युग में ये बात बहुत आम हो गयी है के लोग अपनी असलियत छुपा कर जो वो नहीं हैं उसे दिखाने की कोशिश करते हैं और ऐसे मौकों पर मुझे साहिर साहब द्वारा फिल्म इज्ज़त के लिए लिखा और रफ़ी साहब द्वारा गाया एक गाना " क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे, नकली चेहरा सामने आये असली सूरत छिपी रहे " याद आता है. लेकिन साहब अपवाद कहाँ नहीं होते, जब कोई ताल ठोक कर जैसा वो है वैसा ही अपने बारे में बताते हुए कहता है की:

इक तअल्लुक है वुजू से भी सुबू से भी मुझे 
मैं किसी शौक़ को पर्दे में नहीं रखता हूँ 

तो यकीन मानिये दिल बाग़ बाग़ हो जाता है. वुजू और सुबू से अपनी दोस्ती को सरे आम मानने वाले हमारी आज की "किताबों की दुनिया" श्रृंखला जो अपने 75 वें मुकाम पर पहुँच चुकी है ,के शायर हैं जनाब "राहत इन्दोरी" साहब, जिनकी, दुनिया के किसी भी कोने में हो रहे, मुशायरे में मौजूदगी उसकी कामयाबी की गारंटी मानी जाती है.

कोई मौसम हो, दुःख-सुख में गुज़ारा कौन करता है 
परिंदों की तरह सब कुछ गवारा कौन करता है 

घरों की राख फिर देखेंगे पहले देखना ये है 
घरों को फूंक देने का इशारा कौन करता है 

जिसे दुनिया कहा जाता है, कोठे की तवायफ है 
इशारा किसको करती है, नज़ारा कौन करता है 

 दोस्तों जिस किताब का मैं जिक्र कर रहा हूँ उस किताब का शीर्षक है " चाँद पागल है " और इसे वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है. इस किताब में राहत साहब की एक से बढ़ कर एक खूबसरत 117 ग़ज़लें संगृहीत हैं.


कुछ लोगों से बैर भी ले
दुनिया भर का यार न बन 

सब की अपनी साँसें हैं 
सबका दावेदार न बन 

कौन खरीदेगा तुझको 
उर्दू का अखबार न बन 

अपने अशआरों में ताजगी का एहसास राहत साहब ने फिल्म 'करीब" जो सन 1998 में रीलीज़ हुई थी, में लिखे गीतों से ही करा दिया था, उस फिल्म में रसोई घर में अपने काम गिनाती हिरोइन द्वारा गाये गाने को मैं अभी
तक नहीं भूल पाया हूँ. आप भी सुने:

  

लोग अक्सर शायरों को पढ़ते हैं या सुनते हैं लेकिन राहत इन्दोरी उस शायर का नाम है जिसे लोग पढना, सुनना और देखना पसंद करते हैं. राहत साहब को मुशायरों में शेर सुनाते हुए देखना एक ऐसा अनुभव है जिस से गुजरने को बार बार दिल करता है. उन्होंने सामयीन को शायरी सुनाने के लिए एक नयी स्टाइल खोज ली है जो सिर्फ और सिर्फ उनकी अपनी है. वो शेर को पढ़ते ही नहीं उसे जीते भी हैं.

इरादा था कि मैं कुछ देर तूफां का मज़ा लेता 
मगर बेचारे दरिया को उतर जाने की जल्दी थी 

मैं अपनी मुठ्ठियों में कैद कर लेता ज़मीनों को 
मगर मेरे कबीले को बिखर जाने की जल्दी थी 

मैं साबित किस तरह करता कि हर आईना झूठा है 
कई कमज़र्फ चेहरों को उतर जाने की जल्दी थी 

निदा फाजली साहब ने इस किताब के फ्लैप पर दी गयी भूमिका में लिखा है " सोचे हुए और जिए हुए आम इंसान के दुःख दर्द के फर्क को राहत के शेरों में अक्सर देखा जा सकता है. इस फर्क को राहत की ग़ज़ल की भाषा में भी पहचाना जा सकता है. राहत की ग़ज़ल की ज़ुबान में जो लफ्ज़ इस्तेमाल होते हैं, वो आम आदमी की तरह गली -मोहल्लों में चलते फिरते महसूस होते हैं. इस सरल-सहज, गली-मोहल्लों में चलने फिरने वाली भाषा के ज़रिये उन्होंने समाजके एक बड़े रकबे से रिश्ता कायम किया है."

आबले अपने ही अंगारों के ताज़ा हैं अभी 
लोग क्यूँ आग हथेली प' पराई लेते 

बर्फ की तरह दिसम्बर का सफ़र होता है 
हम तुझे साथ न लेते तो रज़ाई लेते 

कितना हमदर्द सा मानूस सा इक दर्द रहा 
इश्क कुछ रोग नहीं था कि दवाई लेते 

एक जनवरी 1950 को इंदौर में जन्में राहत साहब ने अपनी स्कूली और कालेज तक की पढाई इंदौर में ही की, कालेज की फुटबाल और हाकी टीम के कप्तान रहे राहत साहब ने भोपाल की बरकतुल्ला विश्व विद्यालय से एम् ऐ. (उर्दू) करने के बाद भोज विश्व विद्यालय से पी एच डी. हासिल की. उन्नीस वर्ष की उम्र में उन्होंने कालेज में अपने शेर सुनाये और देवास 1972 में हुए आल इंडिया मुशायरे में उन्होंने पहली बार शिरकत कर अपने इस नए सफ़र की शुरुआत की.

उन्होंने लगभग चालीस हिंदी फिल्मों में अब तक गीत लिखे हैं. उनमें से फिल्म "मिनाक्षी" का गीत "ये रिश्ता क्या कहलाता है..." मुझे बहुत पसंद है.

कतरा कतरा शबनम गिन कर क्या होगा 
दरियाओं की दावेदारी किया करो 

चाँद जियादा रोशन है तो रहने दो 
जुगनू भईया जी मत भारी किया करो 

रोज़ वही इक कोशिश जिंदा रहने की 
मरने की भी कुछ तैय्यारी किया करो 

इसी किताब में "मुनव्वर राना" साहब ने शायरी और राहत साहब के बारे में बहुत अच्छी बात कही है " शायरी गैस भरा गुब्बारा नहीं है जो पलक झपकते आसमान से बातें करने लगता है ! बल्कि शायरी तो खुशबू की तरह आहिस्ता आहिस्ता अपने परों को खोलती है, हमारी सोच और दिलों के दरवाज़े खोलती है और रूह की गहराईयों में उतरती चली जाती है. राहत ने ग़ज़ल की मिट्टी में अपने तजुर्बात और ज़िन्दगी के मसायल को गूंथा है यही उनका कमाल भी है और उनका हुनर भी और इसी कारनामे की वजह से वो देश विदेश में जाने और पहचाने जाते हैं. "

रोज़ तारों की नुमाइश में ख़लल पड़ता है 
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है 

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं 
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है 

उसकी याद आई है साँसों ज़रा आहिस्ता चलो 
धडकनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है 

देश विदेश में अपनी शायरी के पंचम को लहराने वाले राहत साहब को इतने अवार्ड्स से नवाज़ा गया है के उन सबके जिक्र के लिए एक अलग से पोस्ट लिखनी पड़ेगी . उनमें से कुछ खास हैं :पाकिस्तानी अखबार 'जंग' द्वारा दिया गया सम्मान, यू.पी. हिंदी उर्दू साहित्य अवार्ड, डा.जाकिर हुसैन अवार्ड, निशाने-एजाज़, कैफ़ी आज़मी अवार्ड, मिर्ज़ा ग़ालिब अवार्ड, इंदिरा गाँधी अवार्ड, राजीव गाँधी अवार्ड, अदीब इंटर नेशनल अवार्ड, मो. अली ताज अवार्ड, हक़ बनारसी अवार्ड आदि आदि आदि...(लिस्ट बहुत लम्बी है).

राहत साहब की अब तक सात किताबें हिंदी -उर्दू में छप चुकी हैं , "चाँद पागल है" हिंदी में उनकी ग़ज़लों का पांचवां संकलन है.

मसाइल, जंग, खुशबू, रंग, मौसम 
ग़ज़ल अखबार होती जा रही है 

कटी जाती है साँसों की पतंगें 
हवा तलवार होती जा रही है 

गले कुछ दोस्त आकर मिल रहे हैं 
छुरी पर धार होती जा रही है 

इस किताब की प्राप्ति के लिए वही कीजिये जो आपने अब तक किया है याने वाणी प्रकाशन दिल्ली वालों से संपर्क या फिर नैट पर बहुत सी ऐसी साईट हैं जो आपको ये किताब भिजवा सकती हैं उनकी मदद लीजिये , इन सभी साईट का जिक्र यहाँ संभव नहीं है लेकिन इच्छुक लोग मुझसे मेरे ई -मेल neeraj1950@gmail.com या मोबाइल +919860211911 पर मुझसे संपर्क कर पूछ सकते हैं.

अगर आप इस खूबसूरत किताब में शाया शायरी के लिए राहत साहब को बधाई देना चाहते हैं तो उनसे  email - rahatindorifoundation@rediffmail.com Phone : +91 98262 57144  पर संपर्क करें.

आपसे राहत साहब के इन शेरों के साथ विदा लेते हैं और निकलते हैं अगली किताब की खोज पर .

वो अब भी रेल में बैठी सिसक रही होगी 
मैं अपना हाथ हवा में हिला के लौट आया 

खबर मिली है कि सोना निकल रहा है वहां 
मैं जिस ज़मीन प' ठोकर लगा के लौट आया 

वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा 
मैं उसके ताज की कीमत लगा के लौट आया


 




Monday, October 15, 2012

अब धनक के रंग सारे रात दिन



सिर्फ यादों के सहारे रात दिन
पूछ मत कैसे गुज़ारे रात दिन 

साथ तेरे थे शहद से, आज वो 
हो गए रो-रो के खारे रात दिन

कूद जा, बेकार लहरें गिन रहा
बैठ कर दरिया किनारे रात दिन 

बांसुरी जब भी सुने वो श्याम की
तब कहां राधा विचारे रात, दिन 

आपके बिन जिंदगी बेरंग थी 
अब धनक के रंग सारे रात दिन 

है बहुत बेचैन बुलबुल क़ैद में 
आसमाँ करता इशारे रात दिन 

लौट आएंगे वो नीरज ग़म न कर 
खो गये हैं जो हमारे रात दिन 


(ग़ज़ल की नोंक पलक गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने संवारी है)

Monday, October 1, 2012

किताबों की दुनिया - 74

हर शायर की तमन्ना होती है के वो कुछ ऐसे शेर कह जाय जिसे दुनिया उसके जाने के बाद भी याद रखे...लेकिन...मैंने देखा है बहुत अच्छे शायरों की ये तमन्ना भी तमन्ना ही रह जाती है...शायरी की किताबों पे किताबें और दीवान लिखने वाले शायर भी ऐसे किसी एक शेर की तलाश में ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं. गुरुदेव पंकज सुबीर जी के कहे अनुसार "अच्छा और यादगार शेर कहा नहीं जाता ये शायर पर ऊपर से उतरता है ". ऐसा ही एक शेर, जिसे मैंने भोपाल में दो दशक पहले, मेरे छोटे भाई के नया घर लेने के अवसर पर हुई पार्टी में उसके एक साथी के मुंह से पहली बात सुना था, मेरी यादों में बस गया.

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे 
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे 
मोतबर: विश्वसनीय 

 उर्दू शायरी में मकान और घर के महीन से फर्क को इतनी ख़ूबसूरती से शायद ही कभी बयां किया गया हो और अगर किया भी गया है तो मुझे उसका इल्म नहीं है. इस एक शेर ने इसके शायर को वो मुक़ाम दिया जिसकी ख्वाइश हर शायर अपने दिल में रखता है.

शायरी की किताबों को जयपुर की लोकायत, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ, में खोजते हुए जब इस किताब के पहले पन्ने पर सबसे पहले दिए इस शेर पर मेरी निगाह पढ़ी तो लगा जैसे गढ़ा खज़ाना हाथ लग गया है. किताब है " नए मौसम की खुशबू " और शायर हैं जनाब " इफ्तिख़ार आरिफ़ "


 मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे 
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे 

 मैं ज़िन्दगी की दुआ मांगने लगा हूँ बहुत 
जो हो सके तो दुआओं को बेअसर कर दे 

 मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूं तो मेरा ख़ुदा 
उजाड़ दे मेरी मिटटी को दर-बदर कर दे 

शायरी में सूफ़ियाना रंग के साथ मज़हबी रंग का प्रयोग सबसे पहले आरिफ़ साहब ने किया जो सत्तर के दशक में नया प्रयोग था. बाद के शायरों ने उनके इस लहजे की बहुत पैरवी की और ये लहजा उर्दू शायरी का नया मिजाज़ बन गया. आज भी जब कोई नौजवान चाहे वो हिन्दुस्तान का हो या पकिस्तान का जब शायरी की दुनिया में नया नया कदम रखता है तो आरिफ़ साहब की तरह शेर कहने की कोशिश करता है.

हिज्र की धूप में छाओं जैसी बातें करते हैं 
आंसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं 
हिज्र: जुदाई 

खुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते 
फिर भी लोग खुदाओं जैसी बातें करते हैं 

एक ज़रा सी जोत के बल पर अंधियारों से बैर 
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं 

आरिफ़ साहब का जन्म 21 मार्च 1943 को लखनऊ में हुआ. उन्होंने लखनऊ विश्व विद्यालय से 1964 में एम्.ऐ. की शिक्षा प्राप्त की. उस वक्त लखनऊ में मसूद हुसैन रिज़वी, एहतिशाम हुसैन, रिजवान अल्वी और मौलाना अली नक़ी जैसी बड़ी हस्तियाँ मौजूद थीं. इनके बीच रह कर आरिफ़ साहब ने साहित्य, तहजीब, रिवायत और मज़हब का पाठ पढ़ा.

नद्दी चढ़ी हुई थी तो हम भी थे मौज में 
पानी उतर गया तो बहुत डर लगा हमें 

दिल पर नहीं यकीं था सो अबके महाज़ पर 
दुश्मन का एक सवार भी लश्कर लगा हमें 
महाज़: रणभूमि 

गुड़ियों से खेलती हुई बच्ची की गोद में 
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमें 

लखनऊ विश्व विद्यालय से एम्.ऐ. करने के बाद आरिफ़ साहब पकिस्तान चले गए. वहां उन्होंने 1977 तक रेडिओ पाकिस्तान और टेलिविज़न में काम किया. उसके बाद वो 1991 तक लन्दन में बी.सी.सी.आई. के जन संपर्क प्रशाशक और उर्दू मरकज़, लन्दन के प्रभारी प्रशाशक जैसे पदों पर आसीन रहे. सन 1991 से वो पाकिस्तान में रहते हुए "मुक्तदरा कौमी ज़बान" जैसी महत्वपूर्ण संस्था के अध्यक्ष के रूप में भाषा और साहित्य की सेवा कर रहे हैं.

समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं 
जो हम से मिल के बिछड़ जाय वो हमारा नहीं 

समन्दरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक्त 
किसी को हमने मदद के लिए पुकारा नहीं 

वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सरे बाज़ार 
जो कह रहा था कि बिकना हमें गवारा नहीं 

हिंदी भाषी शायरी के दीवानों के लिए हो सकता है आरिफ़ साहब का नाम नया हो और शायद उनका लिखा बहुत से लोगों ने पढ़ा भी न हो लेकिन उर्दू शायरी के फ़लक पर उनका नाम किसी चमचमाते सितारे से कम नहीं. वाणी प्रकाशन वालों ने हिंदी के पाठकों के लिए उर्दू के बेहतरीन शायरों की किताबें प्रस्तुत की हैं और इस काम के लिए उनकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है. आरिफ़ साहब की इस किताब को शहरयार और महताब नकवी साहब ने सम्पादित किया है.

हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिनके सबब 
ज़मीं बलंद हुई आसमां के होते हुए 

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा 
मकाँ के होते हुए, लामकाँ के होते हुए 
लामकां : बिना मकाँ 

दुआ को हाथ उठाते हुए लरजता हूँ 
कभी दुआ नहीं मांगी थी माँ के होते हुए 

इस किताब में जहाँ आरिफ़ साहब की चुनिन्दा ग़ज़लें संगृहीत हैं वहीँ उनकी कुछ बेमिसाल नज्में भी शामिल की गयीं हैं. आरिफ़ साहब की उर्दू में लिखी चार किताबें मंज़रे आम पर आ चुकी हैं, देवनागरी लिपि में पहली बार उनके कलाम को वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है. पाकिस्तान सरकार द्वारा उन्हें "हिलाले इम्तिआज़", सितारा-ऐ-इम्तिआज़ जैसे इनाम से नवाज़ा जा चुका है, भारत में भी आलमी उर्दू कांफ्रेंस ने उन्हें " फैज़ इंटर नेशनल अवार्ड" से नवाज़ा है. दोनों मुल्कों में अपने कलाम का लोहा मनवाने वाले आरिफ़ साहब को पढना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है.

नए मौसम की खुशबू आज़माना चाहती है 
खुली बाहें सिमटने का बहाना चाहती हैं 

 नयी आहें, नए सेहरा, नए ख़्वाबों के इमकान 
नयी आँखें, नए फ़ित्ने जगाना चाहती हैं 

बदन की आग में जलने लगे हैं फूल से जिस्म 
हवाएं मशअलों की लौ बढ़ाना चाहती हैं 

ऐसे एक नहीं अनेक उम्दा शेरों से भरी ये किताब बेहतरीन उर्दू शायरी को हिंदी में पढना चाहने वाले पाठकों के लिए किसी वरदान से कम नहीं. इस किताब को, वाणी वालों को सीधे लिख कर या फिर नेट के ज़रिये आर्डर दे कर, मंगवा सकते हैं. वाणी प्रकाशन वालों का पूरा पता, नंबर आदि मैं अपनी पुरानी पोस्ट्स पर कई बार दे चुका हूँ इसलिए उसे यहाँ फिर से दे कर अपनी इस पोस्ट को लम्बी करना मुझे सही नहीं लग रहा. आरिफ़ साहब के इन शेरों के साथ आपसे विदा लेते हुए वादा करते हैं के हम जल्द ही एक और नयी किताब के साथ आपके सामने हाज़िर होंगे.

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है 
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है 

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ 
शाम होती है तो घर ज़ाने को जी चाहता है 

डूब जाऊं तो कोई मौज निशाँ तक न बताए 
ऐसी नद्दी में उतर जाने को जी चाहता है