Monday, April 2, 2018

किताबों की दुनिया - 171

चलिए एक बार फिर से अतीत में झांकते हैं। अतीत, जहाँ शायरी के उस्ताद हैं, कहन का निराला अंदाज़ है, लफ़्ज़ों का जादू है, एहसास की गहराई है, रिवायत का नशा है. आज के युवाओं को पता होना चाहिए कि पहले शायरी कैसी थी अब कैसी है। हिंदी के पाठक उर्दू के पुराने शायर जैसे ग़ालिब, मीर, दाग, जफ़र, मज़ाज़, इक़बाल, फ़िराक़ आदि के नामों से बखूबी वाकिफ़ हैं लेकिन शायरी के लम्बे इतिहास में ऐसे बेमिसाल शायरों की कमी नहीं जिन्हें हिंदी के पाठकों ने अधिक पढ़ा सुना नहीं। नाम सुना भी हो तो उन्हें पढ़ा नहीं होगा क्यूंकि ऐसे शायरों का कलाम आसानी से पढ़ने को नहीं मिलता। इस श्रृंखला में ऐसे शायरों ज़िक्र होता रहा है उसी कड़ी को आज आगे बढ़ाते हैं :

मरने की दुआएं क्यों माँगूँ जीने की तमन्ना कौन करे 
ये दुनिया हो या वो दुनिया अब ख्वाइशे-दुनिया कौन करे 

जब कश्ती-साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किसको थी 
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे 

जो आग लगाई थी तुमने उसको तो बुझाया अश्कों ने  
जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे

शायद आपको याद होगा कुछ इसी तरह के ज़ज्बात 1972 में आयी फिल्म "अमर प्रेम " में गीतकार आनंद बक्शी साहब ने "चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये..."गीत में पिरोये थे जो खूब मशहूर हुआ था. हो सकता है कि मेरी सोच गलत हो लेकिन मुझे ग़ज़ल ये शेर पढ़ते वक्त वो ही गाना याद आया है। खैर !!ये ग़ज़ल सन 1934 में याने आज से लगभग 84 साल पहले लाहौर से छपने वाले मासिक रिसाले "हुमायूँ" में जब प्रकाशित हुई तो एक-दम से पाठक और लेखक सभी चौंक उठे और उस शायर की गणना अचानक आधुनिक काल के प्रथम श्रेणी के शायरों में होने लगी। दिलचस्प बात ये है कि इस से पहले जो पत्र-पत्रिकाएं इस शायर की रचनाओं को कूड़ा पात्र में डाल रहीं थी वो ही लाइन लगा कर उसका कलाम छापने को लालाइत रहने लगीं। और तो और इस ग़ज़ल को 1948 में आयी हिंदी फिल्म 'जिद्दी' में किशोर कुमार की आवाज़ में देवआनंद साहब पर फिल्माया गया था।

इस तरफ़ इक आशियाने की हक़ीक़त खुल गयी 
उस तरफ़ इक शोख़ को बिजली गिरना आ गया 

रो दिए वो खुद भी मेरे गिरया-ए-पैहम पे आज 
अब हक़ीक़त में मुझे आंसू बहाना आ गया 
गिरया-ए-पैहम=लगातार रोने पर 

मेरी ख़ाके-दिल भी आखिर उनके काम आ ही गई 
कुछ नहीं तो उनको दामन ही बचाना आ गया 

हमारे आज के शायर जनाब "मुईन अहसन ' जज़्बी' जिनकी रचनाओं का संकलन श्री प्रकाश पंडित ने "राजपाल ऐंड संस" की लोकप्रिय सीरीज़ "उर्दू के लोकप्रिय शायर" के अंतर्गत किया था, का जन्म 21 अगस्त 1912 में जिला आजमगढ़ के पास के एक गाँव 'मुबारकपुर" में हुआ। उनके दादा डाक्टर अब्दुल गफ़ूर खुद शायर थे और 'मतीर' उपनाम से ग़ज़लें कहते थे। घर के साहित्यिक माहौल में 'जज़्बी' ने मात्र नौ-दस साल की उम्र से तुकबंदी शुरू कर दी और पन्द्रह-सोलह की उम्र से तो बाकायदा मयारी ग़ज़लें कहने लगे। बचपन में ज़िन्दगी जज़्बी साहब पर बहुत मेहरबान नहीं रही। शायरी के शौक ने पढाई से दिल हटा दिया नतीजा ये निकला कि जनाब ने मेट्रिक पास करने में चार साल लगा दिए। वो ही हुआ जो अक्सर ऐसे हालात में होता है -पिता नाराज़ और सौतेली माँ ताने मार मार कर जीना हलकान करने लगी। जब सब्र की इंतिहा हो गयी तो हुज़ूर घर से भाग खड़े हुए। 


अपनी निगाहे-शौक को रुसवा करेंगे हम 
हर दिल को बेक़रारे-तमन्ना करेंगे हम 

ऐ हुस्न हमको हिज़्र की रातों का ख़ौफ़ क्या
तेरा ख्याल जागेगा सोया करेंगे हम 

ये दिल से कह के आहों के झोंके निकल गए 
उनको थपक-थपक के सुलाया करेंगे हम 

घर से भागना जितना आसान है उतना ही भाग कर ज़िंदा रहना मुश्किल। ग़ालिब के शेर को नकारते हुए उन पर मुश्किलें भी इतनी पड़ीं कि आसान नहीं हुई। उन्होंने ऐसे दिन भी देखे जब उन्हें सुबह की चाय तो किसी तरह मिल जाती लेकिन दोपहर के खाने के लिए पांच-छै मील पैदल चल कर किसी मित्र-मुलाकाती का मुंह देखना पड़ा और न जाने कितनी रातों को फाकों की नौबत आई। ट्यूशनें करके और पेट पर पत्थर बांधकर उन्होंने आगरा के सेंट जोंस कॉलेज से इंटर किया। स्कूल के दिनों और फिर उसके बाद भी जनाब गफ़्फ़ार और सादिक़ के रूप में उन्हें उस्ताद मिले। गफ़्फ़ार साहब उनके लिखे को देखते सुधारते और फिर सादिक़ साहब को दिखाते जो थोड़ी फेर बदल से उनकी शायरी को चमका देते। स्कूल के बाद उन्होंने आगरा के ही एंग्लो अरेबिक कॉलेज में दाखिला लिया और वहीँ से बी.ऐ की डिग्री हासिल की।

ऐश से कुछ खुश हुए क्यों ग़म से घबराया किये
ज़िन्दगी क्या जाने क्या थी और क्या समझा किये 

वो हवाएं, वो घटायें, वो फ़ज़ा वो उनकी याद 
हम भी मिज़राबे-अलम से साज़े-दिल छेड़ा किये 
मिज़राबे-अलम =दुःख रूपी सितार बजाने का छल्ला 

काट दी यूँ हमने 'जज़्बी' राहे मंज़िल काट दी 
गिर पड़े हर गाम पर, हर गाम संभला किये 
गाम=डग 

कॉलेज के दिनों में उनकी दोस्ती लाजवाब शायर मज़ाज़ से हुई और फ़ानी बदायूनी से पहचान। इन दोनों के सानिध्य से जज़्बी साहब की शायरी में सुधार आया। एक महफ़िल में उन्हें जनाब जिगर मुरादाबादी साहब ने कलाम पढ़ते सुना और खुश हो गए। वो उन्हें जनाब मैकश अकबराबादी से मिलवाने ले गए। मैकश साहब की रहनुमाई में जज़्बी साहब की शायरी बराबर संवरती रही। उनका व्यक्तिगत ग़म सामूहिक ग़म में परिवर्तित हो गया।सन 1941 में जज़्बी साहब अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने चले गए और वहां से एम् ऐ की डिग्री हासिल की। फ़ाक़ा मस्ती और शायरी का दौर साथ साथ चलता रहा।

रूठने वालों से इतना कोई जाकर पूछे 
खुद ही रूठे रहे या हमसे मनाया न गया 

फूल चुनना भी अबस, सैर-बहारां भी फ़जूल 
दिल का दामन ही जो काँटों से बचाया न गया 
अबस=व्यर्थ 

उसने इस तरह मुहब्बत की निगाहें डालीं 
हमसे दुनिया का कोई राज़ छुपाया न गया 

अलीगढ़ में पढाई करने के दौरान उनका लख़नऊ आना जाना भी लगा रहा जहाँ उनकी मुलाकात अली सरदार ज़ाफ़री और सिब्ते हसन साहब से हुई। इन लोगों ने उनका परिचय प्रगतिवादी विचारधारा से करवाया जिसके बाद जज़्बी अलीगढ़ में एम.ए. के दौरान आंदोलन के सक्रिय सदस्यों में गिने जाने लगे. एम.ए. करने के बाद कुछ अर्से तक जज़्बी ने माहनामा ‘आजकल’ में सहायक सम्पादक के रूप में अपनी सेवाएँ दीं. 1945 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के रूप में नियुक्ति हो गयी जहाँ वह अंतिम समय तक विभन्न पदों पर रहे. अलीगढ़ में लगी इस नौकरी ने उनके माली हालात अच्छे कर दिए और ज़िन्दगी में कुछ सुकून के पल हासिल होने लगे। नौकरी लगने के बाद उन्होंने अपनी बूढ़ी बीमार सौतेली मां को ,जिसने बचपन में जज़्बी साहब को बहुत सताया था ,अपने पास ले आये और उनकी खूब सेवा की।

शिकवा ज़बान से न कभी आशना हुआ
नज़रों से कह दिया जो मेरा मुद्दआ हुआ 

अल्लाह री बेखुदी कि चला जा रहा हूँ मैं
मंज़िल को देखता हुआ कुछ सोचता हुआ 

फिर ऐ दिल-शिकस्ता कोई नग्मा छेड़ दे 
फिर आ रहा है कोई इधर झूमता हुआ 

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए उन्होने सन 1956 में ‘हाली का सियासी शुऊर’ विषय पर पी.एच. डी. हासिल की । यह किताब हाली अध्ययन में एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में भी स्वीकार की गयी. इसके अतिरिक्त ‘फ़ुरोज़ां’, ‘सुखन-ए-मुख्तसर’ और ‘गुदाज़ शब’ उनके काव्य संग्रह हैं. जज़्बी साहब ' प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा संचालित 'तरक्की पसंद तहरीक " से लम्बे वक्त तक जुड़े रहे।जज़्बी साहब ने अपने समकालीनों के मुकाबले बहुत कम लिखा है लेकिन जो लिखा पुख्ता लिखा है । उनके बारे में कहा जाता है कि वो अपने एक एक शेर को महीनों मांझते थे और उस वक्त तक सामने नहीं लाते थे जब तक कि उन्हें विश्वास न हो जाय कि किसी भी दृष्टि से उस शेर में अब काट-छाँट की गुंजाइश नहीं बची है। फ़ेसबुक पे फ़टाफ़ट अपनी ग़ज़ल चिपका कर लाइक पाने वाले इस दौर में ,इतनी मेहनत करने वाले शायर अब हैं कहाँ ?

यही ज़िन्दगी मुसीबत यही ज़िन्दगी मसर्रत 
यही ज़िन्दगी हक़ीक़त यही ज़िन्दगी फ़साना 

कभी दर्द की तमन्ना, कभी कोशिशे-मुदावा 
कभी बिजलियों की ख्वाइश कभी फ़िक्रे-आशियाना 
कोशिशे-मुदावा=उपचार की कोशिश 

जिसे पा सका न ज़ाहिद, जिसे छू सका न सूफ़ी 
वही तार छेड़ता है, मेरा सोज़े-शायराना 

जज़्बी की शायरी को आलोचकों ने सही से परखा नहीं किसी ने उन्हें 'केवल शब्दों का जौहरी' कह कर ख़ारिज किया तो किसी ने उसकी शायरी को उर्दू के महान निराशावादी शायर 'फ़ानी बदायूनी' की शायरी का चर्बा माना। जबकि असलियत ये है कि जज़्बी के यहाँ हमें अन्तर्गति और कला का ऐसा सुन्दर समावेश मिलेगा जो उर्दू की नई पीढ़ी के बहुत कम शायरों के हिस्से में आया है और जिसके लिए एक-दो दिन की नहीं बरसों की तपस्या चाहिए। उर्दू के इस कद्दावर शायर ने जीवन भर कभी शोहरत और आलोचकों की परवाह नहीं की और अपने काम पर लगे रहे। जज़्बी साहब की याद में नवंबर 2017 को आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में दो दिन की संगोष्ठी का आयोजन किया गया था जहाँ देश भर से आये उर्दू अदब के नामी गरामी साहित्यकारों ने शिरकत की थी। वहां आये सभी लोग इस बात से सहमत थे कि 'उनकी ज़िन्दगी और उनकी शायरी एक है। जब तक उर्दू शायरी ज़िंदा है जज़्बी का नाम अज़मत से लिया जाएगा "

मुस्कुरा कर डाल ली रुख पर नक़ाब
मिल गया जो कुछ कि मिलना था जवाब 

दिल की इक हल्की सी जुम्बिश चाहिए 
किसका पर्दा और फिर कैसी नक़ाब 

अब तो मंज़िल की भी कुछ पर्वा नहीं 
मैं कहाँ हूँ ऐ दिले-नाकामियाब 

जज़्बी साहब इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से 13 फरवरी 2005 से रुख़्सत हो गए और पीछे छोड़ गए ऐसी लाजवाब शायरी जो उर्दू शायरी के फ़लक पर हमेशा जगमगाती रहेगी। मुझे अफ़सोस है कि मैं आपको इस किताब तक पहुँचने का रास्ता नहीं बता सकता क्यूंकि राजपाल वालों के यहाँ ये आउट ऑफ प्रिंट हो चुकी है। किसी लाइब्रेरी में पड़ी मिल जाए तो मिल भी जाय वरना रेख़्ता की साइट पर आप जज़्बी साहब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें पढ़ सकते हैं। इस किताब में आप जज़्बी साहब की लगभग 21 नज़्में और 45 के करीब ग़ज़लें पढ़ सकते हैं। जज़्बी साहब की नज़्म "मौत" उर्दू की सर्वकालीन बेहतरीन नज़्मों में से एक मानी जाती है। ये नज़्म इंटरनेट पर उपलब्ध है , इसे एक बार जरूर पढ़ें। अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले हाज़िर हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

अजल से लरज़ते रहे हैं मिज़ां पर 
खुदा जाने टूटेंगे कब ये सितारे 
मिज़ां=पलकें 

तुझे आस्मां नाज़ है इक शफ़क़ पर
ज़मीं पर तो हैं कितने खूनीं नज़ारे 

वहां से भी तूफ़ान उठ्ठे हैं ऐ दिल
जिन्हें लोग समझा किये हैं किनारे 

सियह रात क्यों काँप उठती है 'जज़्बी' 
सहर के तो होते हैं दिलकश इशारे

5 comments:

Parul Singh said...

मेरी ख़ाके-दिल भी आखिर उनके काम आ ही गई
कुछ नहीं तो उनको दामन ही बचाना आ गया

अब तो मंज़िल की भी कुछ पर्वा नहीं
मैं कहाँ हूँ ऐ दिले-नाकामियाब
किसी शाईर के कलाम को पढ़ना,उस की शख्सियत से रूबरू होने जैसा होता है। जो जी से जिया ना हो या जो जी से महसूसा ना हो वो क्या शायरी। जज़्बी साहेब के अशआर मे उनकी ज़िन्दगी भी झलकती है। शायर की ज़िन्दगी से रोचक रूबरू कराने के लिए आपका बहुत शुक्रिया। वरना तो समीक्षा लम्बी हो तो बोर भी कर देती है। पर इस ब्लॉग पर तो ऐसा नही होता।

Kuldeep said...

बहुत। उम्दा जानकारी

mgtapish said...

Khoob waaaaaah waaaaaah waaaaaah kya kahne achcha lekh

SATISH said...

Bahut khoob ... Neeraj Sahab ... ek aur naayaab peshkash ... Dili mubarakbaad ... Raqeeb

Unknown said...

शायर और शायरी की इतनी उम्दा जानकारी वो भी इतने सरल और धाराप्रवाह तारतम्य के साथ ... आप और आपकी लेखनी दोनों को नमन...