Monday, January 1, 2018

किताबों की दुनिया -158

इबादतों के तरफ़दार बच के चलते हैं 
किसी फ़क़ीर की राहों में गुल बिछा कर देख 

ये आदमी है ,रिवाजों में घुल के रहता है 
न हो यकीं तो समंदर से बूँद उठा कर देख 

तनाव सर पे चढ़ा हो तो बचपने में उतर 
खुद अपने हाथों से पानी को छपछपा कर देख 

आज किताबों की दुनिया श्रृंखला में जिस किताब का जिक्र हम करने जा रहे हैं वो अब तक इस श्रृंखला में आयी सभी किताबों से अलग है। ये एक अनूठी किताब है। ग़ज़ल जैसा कि आप सभी जानते ही हैं अनेक भाषाओँ में लिखी जा रही है और उन्हीं भाषाओँ में किताबें प्रकाशित भी हो रही हैं जैसे उर्दू ,हिंदी ,पंजाबी ,गुजराती , सिंधी आदि का तो सब को पता ही है लेकिन ब्रज भाषा में ग़ज़ल की कोई किताब प्रकाशित हुई है -ये बात मेरी जानकारी में नहीं, हो सकता है कि मेरी जानकारी अधूरी हो लेकिन साहब ऐसी किताब, जिसके एक पृष्ठ पर ग़ज़ल ब्रज भाषा में है और सामने वाले पृष्ठ पर वो ही ग़ज़ल हिंदी में ,मैंने तो न कभी सुनी, देखी या पढ़ी। ये प्रयोग उर्दू के साथ हिंदी में तो बहुत हुआ है लेकिन ब्रजभाषा के साथ हिंदी में - बिलकुल नहीं।

अगर तू बस दास्तान में है अगर नहीं कोई रूप तेरा 
तो फिर फ़लक से ज़मीं तलक ये धनक हमें क्या दिखा रही है 

सभी दिलो-जां से जिस को चाहें उसे भला आरज़ू है किसकी 
ये किस से मिलने की जुस्तजू में हवा बगूले बना रही है 

चलो कि इतनी तो है ग़नीमत कि सब ने इस बात को तो माना 
कोई कला तो है इस ख़ला में जो हर बला से बचा रही है 

हर भाषा की अपनी मिठास होती है और ये ग़लत होगा अगर आप ब्रज भाषा की मिठास की बांग्ला ,उर्दू या मैथिलि के साथ तुलना करें। भले ही इसे खड़ी बोली का नाम दिया गया है लेकिन इस भाषा के काव्य को सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, बिहारी जैसे कवियों ने मालामाल किया है। इस भाषा के काव्य में कृष्ण की बांसुरी सुनाई देती है। ब्रज बहुत समृद्ध भाषा है लेकिन इस भाषा में अब तक किसी ने लगातार ग़ज़ल कहने का जोख़िम नहीं उठाया। हमारे आज के शायर न केवल ब्रज में ग़ज़लें कहते हैं बल्कि ताल ठोक कर महफ़िलों में सुनाते हैं और वाह वाही लूट लाते हैं।

मीठे बोलों को सदाचार समझ लेते हैं 
लोग टीलों को भी कुहसार समझ लेते हैं 

कोई उस पार से आता है तसव्वुर ले कर 
हम यहाँ खुद को कलाकार समझ लेते हैं 

एक दूजे को बहुत घाव दिए हैं हमने 
आओ अब साथ में उपचार समझ लेते हैं 

मुंबई जैसी नगरी में ब्रजभाषा की मिठास में ग़ज़लें कहने वाले हमारे आज के शायर हैं जनाब "नवीन सी चतुर्वेदी " जिनकी ब्रज-हिंदी ग़ज़लों की किताब "पुखराज हबा में उड़ रए ऐं " की बात हम करेंगे। जैसा कि मैंने पहले कहा ये अपनी तरह का अनोखा ग़ज़ल संग्रह है और इसके पीछे नवीन जी की ब्रजभाषा की ग़ज़ल को सम्मान दिलाने की दृढ़ इच्छा शक्ति प्रकट होती है। 'नवीन' जी इस संग्रह में संकलित ग़ज़लों के माध्यम से ये सिद्ध कर देते हैं कि उनका ब्रज , हिंदी और उर्दू भाषा पर समान अधिकार है। ब्रज भाषा की ग़ज़लों को हिंदी उर्दू में ढालने का जो कौशल उन्होंने दर्शाया है वो हैरान कर देने वाला है।



रूह ने ज़िस्म की आँखों से तलाशा जो कुछ 
सिर्फ़ आँखों में रहा दिल में समाया ही नहीं 

लड़खड़ाहट पे हमारी कोई तनक़ीद न कर 
बोझ को ढोया भी है सिर्फ उठाया ही नहीं 

एक बरसात में ढह जाने थे बालू के पहाड़ 
बादलों तुमने मगर ज़ोर लगाया ही नहीं 

27 अक्टूबर 1968 को मथुरा के माथुर चतुर्वेदी परिवार में जन्में जुझारू प्रकृति के 'नवीन' ने प्रारम्भिक शिक्षा मथुरा में पूरी की और वाणिज्य विषय में स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद बड़ौदा में नौकरी करने लगे, साल भर बाद ही नौकरी से उनका मन उचट गया और वो 1988 में मुंबई आ गए। मुंबई नगरी में उन्होंने अपना सेक्युरिटी-सेफ्टी- एक्विपमेंट व्यवसाय आरम्भ किया जो अब उनकी कड़ी महनत और ईश्वर की कृपा से फल फूल रहा है और जिसे उनके दो होनहार पुत्र बहुत कुशलता से संभाल रहे हैं। ज़िन्दगी संवारने की कवायद के बीच उन्होंने अपने साहित्य प्रेम को कभी नज़र अंदाज़ नहीं किया और उनकी लेखनी सतत चलती रही।

ये न गाओ कि हो चुका क्या है 
ये बताओ कि हो रहा क्या है 

इस ज़माने को कौन समझाये 
अब का तब से मुक़ाबला क्या है

हम फ़क़ीर इतना सोचते ही नहीं 
बन्दगी का मुआवज़ा क्या है 

झुक के बोला कलम से इरेजर 
यार तुझको मुगालता क्या है

'नवीन' जी का रचना संसार बहुत बड़ा है वो ग़ज़लों के साथ साथ साहित्य की अनेक विधाओं पर भी अपनी लेखनी कुशलता से चलाते हैं। मुंबई में होने वाली नशिस्तों और मुशयरों में उनकी उपस्तिथि चार चाँद लगा देती है। अपनी मनभावन मुस्कान से किसी को भी अपना बना लेने का हुनर उन्हें खूब आता है। मुंबई में जहाँ हर इंसान सिर्फ और सिर्फ अपने आप तक ही सिमित रहता है 'नवीन' जैसा बिंदास बेलौस फक्कड़ और सबको गले लगाने वाला इंसान इक अजूबा है। उन्होंने ब्रज की मिटटी की खुशबू को कभी अपने से अलहदा नहीं किया। उनके चुंबकीय व्यक्तित्व का सारा श्रेय उनके गुरु आदरणीय यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' और माँ-पिता से मिले संस्कारों को जाता है।

पीर-पराई और उपचार करें अपना 
संत-जनों के रोग अलहदा होते हैं 

रोज नहीं पैदा होती मीरा-शबरी 
जोगनियों के जोग अलहदा होते हैं 

सीधे मुंह में भी गिर सकते हैं अंगूर
पर ऐसे संजोग अलहदा होते हैं 

इस किताब में नवीन जी की ब्रजभाषा की 52 ग़ज़लें संग्रहित हैं ,जाहिर सी बात है की वो ही ग़ज़लें हिंदी में भी कही गयी हैं। ब्रजभाषा और हिंदी दोनों के पाठक इन ग़ज़लों का भरपूर आनंद उठा सकते हैं। ब्रजभाषा की ग़ज़लों में भी कहीं कहीं नवीन जी ने देशज शब्दों का विलक्षण प्रयोग किया है जो शहर से दूर गाँव देहात के कस्बों में बोली जाती है। मजे की बात ये है कि किसी किसी ग़ज़ल में अंग्रेजी के शब्द भी बहुत ख़ूबसूरती से पिरोये गए हैं जो पढ़ने का आनंद दुगना कर देते हैं।ग़ज़ल लेखन की बारीकियों को उन्होंने जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब से सीखा और उसे अपेक्षित दिशा दी उनके मित्र और पथ प्रदर्शक मयंक अवस्थी साहब ने। उनकी एक बहुत मजेदार रदीफ़ वाली ग़ज़ल के ये शेर देखें ,जिनका असली आनंद तो ब्रजभाषा में ही उठाया जा सकता है और इस आनंद के लिए तो आपको ये किताब ही पढ़नी पड़ेगी क्यूंकि इस श्रृंखला के पाठक हिंदी बोलने समझने वाले अधिक हैं इसलिए मैंने सिर्फ हिंदी में अनुवादित ग़ज़लों का ही चयन किया है :

बीस बार बोला था तुझसे दाना-पानी कम न पड़े 
अब क्या करता है हैया हैया भैंस पसर गयी दगरे में 

ऐसी वैसी चीज समझ मत ये तो है सरकार की सास 
जैसे ही देखे नक़द रुपैय्या भैंस पसर गयी दगरे में 

या फिर 

खेतों में बरसात का पानी भर भी गया तो क्या चिंता 
थोड़ा पानी यहाँ बहाओ थोड़ा उलीचो परली तरफ़ 

कितनी पुश्तें गिनोगे भाई ये है बहुत पुराना रिवाज़ 
अपना आँगन साफ़ करो और धूल उड़ाओ परली तरफ़ 

'नवीन' जी की रचनाएँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपती रहती हैं इसके अलावा आकाशवाणी दूरदर्शन से भी उनका कलाम प्रसारित हो चुका है. अंतरजाल की लगभग समस्त साहित्यिक साइट पर उनका कलाम मौजूद है। फेसबुक पर वो निरंतर अपनी ताज़ा रचनाऐं पोस्ट करते हैं जिन्हें भरपूर वाहवाही मिलती है. इस किताब की एक बहुत बड़ी खूबी भी आपको अब बता ही दूँ। ग़ज़ल के छात्रों के लिए ये किताब एक वरदान समझें क्यूंकि इसमें नवीन जी ने ग़ज़ल लेखन के बारे में संक्षेप में जिस सरलता से जानकारी दी है वो अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है। उसे पढ़कर ग़ज़ल सीखने वालों को बहुत सी उपयोगी जानकारी मिल जाएगी।
अंजुमन प्रकाशन इलाहबाद से प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वीनस केसरी जी से उनके मोबाइल न 9453004398 पर संपर्क करें और साथ ही नवीन जी को उनके मोबाइल न 9967024593 पर बात कर बधाई दें ,यकीन मानिये नवीन जी से बात कर यदि आपका मन गदगद न हो जाये तो मुझे बताएं।
आपसे विदा लेने से पहले नवीन जी की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ

बाकी सब सच्चे हो गये 
मतलब हम झूठे हो गये 

सब को अलहदा रहना था 
देख लो घर महँगे हो गये 

कहाँ रहे तुम इतने साल 
आईने शीशे हो गये

22 comments:

नकुल गौतम said...

सब को अलहदा रहना था
देख लो घर महँगे हो गये


कितनी सच्ची बात कह दी sir।
नवीन चतुर्वेदी sir न केवल एक बहुत अच्छे शायर हैं बल्कि बहुत प्यारे इंसान भी हैं। इनकी ज़िन्दादिली का मैं क़ायल हूँ। मेरे बहुत आदरणीय हो कर भी ये एक मित्र की तरह हैं, जिन्हें मिलकर, गले लगाकर अच्छा लगता है।
इनकी शायरी और खुशमिजाजी का जादू हर महफ़िल को झूमने पर मजबूर करता है।

आपको इस पुस्तक से ये नगीने चुनने में काफी मेहनत करनी पड़ी होगी। हम से इस पुस्तक का परिचय कराने के लिए आभार sir।

सादर, नकुल

Unknown said...

Bahut umda

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

नवीन जी का प्रयास बहुत अच्छा और सराहनीय है। बधाई।

SagarSialkoti said...

नमस्कार बहुत ही सुंदर आप की मेहनत को सलाम करता हू सागर सियालकोटी लुधियाना

Mukul dutt chaturvedi said...

नवीन भाई ब्रज भाषा के लिए आपका प्रयास अनूठा गम्भीर और सराहनीय है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-01-2018) को नववर्ष "भारतमाता का अभिनन्दन"; चर्चा मंच 2836

पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
नववर्ष 2018 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कविता रावत said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति
आपका नववर्ष मगलमय हो!

Unknown said...

नवीन सी चतुर्वेदी सिर्फ़ नाम ही के नवीन नहीं हैं बल्कि अपनी रचनाओं को विभिन्न नवीन आयाम दे कर उन्हों ने अपने नाम को सार्थक किया है. उनकी रचनाएँ पढ़ कर पढ़ कर हमेशा इस बात का एहसास होता है कि इस शख्स ने शायरी को अपना ओढ़ना बिछौना बना रक्खा है और हर पल उसी दुनिया में सांस लेता है. आज के ज़माने में कला के प्रति ऐसा समर्पण बहुत कम दिखाई देता है.
आप ने उनकी शायरी की विविधता और आयाम से बेहद सुन्दरता पाठकों से परिचय कराया है.
इस संकलन के प्रकाशन पर नवीन जी को मेरी तरफ़ से बधाई और शुभ कामनाएं!

Jyoti khare said...

कमाल की प्रस्तुति
शुभकामनाएँ
सादर

pran sharma said...

Achchhee Ghazalon ke Liye Naveen Ji Ko Badhaaee Aur Shubh Kamna

Ashish Anchinhar said...

उदाहरण में ब्रजभाषा गजल के शेर देते तो और भी अच्छा रहता। मैथिलि के बदले "मैथिली" प्रयोग करेगें तो सही रहेगा

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

जीते रहिये नकुल भाई। बहुत-बहुत शुक्रिया। जय श्री कृष्ण।

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

बहुत-बहुत शुक्रिया। जय श्री कृष्ण।

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आलम भाई मैं ख़ुशनसीब हूँ कि एक बार फिर आपकी मुहब्बतें मुझे हासिल हुयी हैं। बहुत-बहुत शुक्रिया।

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आदरणीय नीरज गोस्वामी जी यह मेरा सौभाग्य है कि मेरा प्रयास आप का ध्यानाकर्षण कर सका। आपकी बेपनाह मुहब्बतों ने मेरा हौसला दोबाला कर दिया है।

रुचिकर लोगों की जानकारी के लिये जोड़ना चाहूँगा कि 2013 में शुरू हुये इस ब्रजगजल के सफ़र में अब मेरे अलावा 11 ग्यारह अन्य लोग जुड़ चुके हैं। इन ग्यारह लोगों ने मिलकर ब्रजगजलों का शतक पूरा कर लिया है। जल्द ही हम सबकी शताधिक ब्रजगजलों का एक साझा संकलन आने वाला है।

नीरज भाई आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। जय श्री कृष्ण।