Monday, October 26, 2015

किताबों की दुनिया -112

आँख भर आयी कि यादों की धनक सी बिखरी 
अब्र बरसा है कि कंगन की खनक सी बिखरी 
अब्र = बादल 

जब तुझे याद किया रंग बदन का निखरा 
जब तिरा नाम लिया कोई महक सी बिखरी 

शाख-ए -मिज़गां पे तिरी याद के जुगनू चमके 
दामन-ए-दिल पे तिरे लब की महक सी बिखरी 
शाख-ए -मिज़गां = पलकों की डाली 

उर्दू शायरी का पूरा आनंद लेने लिए यूँ तो उर्दू भाषा की जानकारी होनी चाहिए लेकिन भला हो "सुरेश कुमार " जैसे अनेक अनुवादकों का जिनकी बदौलत हम जैसे लोग देवनागरी में इसका आनंद उठा पा रहे हैं । आज उर्दू के हर छोटे बड़े शायर का कलाम देवनागरी में उपलब्ध है लेकिन फिर भी बहुत से ऐसे लाजवाब शायर अभी भी बचे हुए हैं जिन्हें पढ़ने की तमन्ना बिना उर्दू लिपि जाने पूरी नहीं हो पा रही।

मैं उर्दू सीख कर ऐसे शायर और उनकी किताबों का जिक्र इस श्रृंखला में कर भी दूँ तो भी उनकी किताबें मेरे पाठकों के हाथ शायद ना पहुंचे क्यूंकि सभी पाठकों से उर्दू लिपि सीखने की अपेक्षा रखना सही नहीं होगा। इसलिए मैं इस श्रृंखला में सिर्फ उन्हीं किताबों जिक्र करता हूँ जो जो देवनागरी में उपलब्ध हैं और मेरी समझ से पाठकों तक पहुंचनी चाहियें।

उस एक लम्हे से मैं आज भी हूँ ख़ौफ़ज़दा 
कि मेरे घर को कहीं मेरी बद्दुआ न लगे 
ख़ौफ़ज़दा = भयभीत 

वहां तो जो भी गया लौट कर नहीं आया 
मुसाफिरों को तिरे शहर की हवा न लगे 

परस्तिशों में रहे मह्व ज़िन्दगी मेरी 
सनमकदों में रहे वो मगर खुदा न लगे 
परस्तिशों = पूजाओं ; मह्व = लिप्त ; सनमकदों = मूर्ती गृहों 

शब-ए -फ़िराक की बेरहमियों से कब है गिला 
कि फ़ासले न अगर हों तो वो भला न लगे 
शब-ए -फ़िराक = विरह की रात 

रेशमी एहसास से भरी अपनी शायरी से जादू जगाने वाली हमारी आज की शायरा हैं मोहतरमा " इरफ़ाना अज़ीज़ " जिनकी सुरेश कुमार जी द्वारा सम्पादित किताब " सितारे टूटते हैं " का जिक्र हम करने जा रहे हैं। पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान की जिन शायराओं ने आधुनिक उर्दू शायरी को नयी दिशा दी है उनमें “इरफ़ाना अज़ीज़” साहिबा का नाम बड़ी इज़्ज़त से लिया जाता है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों और नज़्मों से उर्दू शायरी के विकास में बहुत अहम भूमिका अदा की है।



लगाओ दिल पे कोई ऐसा ज़ख्म-ए-कारी भी 
कि भूल जाये ये दिल आरज़ू तुम्हारी भी 
ज़ख्म-ए-कारी = भरपूर घाव 

कभी तो डूब के देखो कि दीदा-ए-तर के 
समन्दरों से झलकती है बेकिनारी भी 

मोहब्बतों से शनासा खुदा तुम्हें न करे 
कि तुमने देखी नहीं दिल की बेकरारी भी 
शनासा = परिचित 

शब-ए-फ़िराक में अब तक है याद शाम-ए-विसाल 
गुरेज़-पा थी मोहब्बत से हम-किनारी भी 
गुरेज़-पा =कपट पूर्ण , अस्पष्ट 

एक साध्वी की तरह, लगभग गुमनाम सी रहते हुए, उर्दू साहित्य की पचास सालों से अधिक खिदमत करने वाली इरफ़ाना साहिबा ने अपनी ज़िन्दगी के अधिकांश साल केनेडा में गुज़ारे जहाँ उनके पति प्रोफ़ेसर थे। केनेडा प्रवास के दौरान उनका घर पूरी दुनिया के शायरों की तीर्थ स्थली बना रहा. फैज़ अहमद फैज़ और अहमद फ़राज़ साहब उनके नियमित मेहमान रहे। लोग कहते हैं कि उनकी शायरी पर फैज़ साहब का रंग दिखाई देता है जबकि इरफ़ाना साहिबा ने इस बात से इंकार करते हुए कहा कि वो फैज़ साहब से प्रभावित जरूर हैं लेकिन इस्टाइल उनकी अपनी है।

हसरत-ए-दीद आरज़ू ही सही 
वो नहीं उसकी गुफ़्तगू ही सही 
हसरत-ए-दीद = देखने की इच्छा 

ए' तिमाद-ए-नज़र किसे मालूम 
वो तरहदार खूबरू ही सही 
ए' तिमाद-ए-नज़र = देखने का भरोसा ; तरहदार = छबीला ; खूबरू = रूपवान 

आदमी वो बुरा नहीं दिल का 
यूँ बज़ाहिर वो हीलाजू ही सही 
बज़ाहिर = देखने में , एप्रेंटली ; हीलाजू = बहाना ढूंढने वाला 

कोई आदर्श हो मोहब्बत का 
वो नहीं उसकी आरज़ू ही सही 

अनोखे रूपकों और उपमाओं से सजी उनकी आधा दर्ज़न उर्दू में लिखी शायरी की किताबे मंज़रे आम पर आ चुकी हैं, देवनागरी में ये उनका पहला और एक मात्र संकलन है ,अफ़सोस बात तो ये है कि इतनी बड़ी शायरा के बारे में कोई ठोस जानकारी हमें नेट से भी नहीं मिलती। गूगल, जो सबके बारे में जानने का ताल ठोक के दावा करता है ,भी इरफ़ाना साहिबा के बारे में पूछने पर बगलें झाकने लगता है। नेट पर आप इस किताब के बारे में भाई अशोक खचर के ब्लॉग के इस लिंक पर क्लिक करने से जान सकते हैं। http://ashokkhachar56.blogspot.in/2013/09/sitaretootatehaiirfanaaziz.html

छाँव थी जिसकी रहगुज़र की तरफ 
उठ गए पाँव उस शजर की तरफ 

चल रही हूँ समन्दरों पर मैं 
यूँ कदम उठ गये हैं घर की तरफ 

जब भी उतरी है मंज़िलों की थकन 
चाँद निकला है रहगुज़र की तरफ 

इरफ़ाना साहिबा की शायरी संगीतमय , असरदार चुनौती पूर्ण है और शांति, प्रेम ,न्याय की पक्षधर हैं इसीलिए उनकी शायरी का कैनवास बहुत विस्तृत है। उनकी सोच संकीर्ण न होकर सार्वभौमिक है. वो मानव जाति के कल्याण का सपना देखती हैं। मोहब्बत की हिमायती उनकी शायरी में प्रेम सीमाएं तोड़ कर वेग से नहीं वरन मंथर गति से हौले हौले बहता नज़र आता है और उसका असर अद्वितीय है ।

तिरी फ़ुर्क़त में ज़िंदा हूँ अभी तक 
बिछुड़ कर तुझसे तेरा आसरा हूँ 
फ़ुर्क़त = वियोग 

रही है फासलों की जुस्तजू क्यों 
मैं किसके हिज़्र में सबसे जुदा हूँ 
हिज्र = विछोह 

गिला है मुझको अपनी ज़िन्दगी से 
मैं कब तेरी मोहब्बत से खफा हूँ 

खुले सर आज निकली हूँ हवा में 
बरहना सर सदाक़त की रिदा हूँ 
बरहना सर = नंगे सर ; सदाक़त = सच्चाई ; रिदा = रजाई 

"सितारे टूटते हैं" पढ़ते वक्त इसके संपादक सुरेश कुमार से हमें सिर्फ एक ही शिकायत है कि उन्होंने किताब में इरफ़ाना साहिबा की सिर्फ 44 ग़ज़लें ही शामिल की हैं हालाँकि इसके अलावा किताब में उनकी 43 नज़्में भी हैं पर लगता है जैसे जो है बहुत कम कम है, भरपूर नहीं है। किताब पढ़ने के बाद एक कसक सी रह जाती है और और पढ़ने की। हमारी तो सुरेश साहब से ये ही गुज़ारिश है कि वो इरफ़ाना साहिबा की शायरी की एक और किताब सम्पादित करें। जिस शायरा के कलाम लिए फैज़ साहब ने फ़रमाया हो कि " इरफ़ाना अज़ीज़" हर एतबार से हमारे जदीद शुअरा की सफ-ऐ-अव्वल में जगह पाने की मुस्तहक है " उसकी चंद ग़ज़लें ही अगर को मिलें तो भला तसल्ली कैसे होगी ?

कहीं न अब्रे-ऐ-गुरेज़ाँ पे हाथ रख देना 
कि बिजलियाँ हैं अभी नीलगूँ रिदाओं में 
अब्रे-ऐ-गुरेज़ाँ = भागता हुआ बादल ; नीलगूँ = नीले रंग की ; रिदाओं = चादरों 

उसे तो मुझसे बिछुड़ कर भी मिल गयी मंज़िल 
मैं फासलों की तरह खो गयी ख़लाओं में 

अजीब बात है कि अक्सर तलाश करता था 
वो बेवफ़ाई के पहलू मिरी वफाओं में 

सबसे अच्छी बात ये है कि इस किताब को प्रकाशित किया है " डायमंड बुक्स " वालों ने ,जिनकी प्रकाशित पुस्तकें हर शहर में और उसके स्टेशन, बस स्टेण्ड पर मिल जाती हैं , याने इसे पाने लिए आपको पापड़ नहीं बेलने पड़ेंगे। अगर आपको किताब आपके घर के निकटवर्ती पुस्तक विक्रेता के पास न मिले तो आप डायमंड बुक्स वालों को उनके पोस्टल अड्रेस "एक्स -30 , ओखला इंडस्ट्रियल एरिया ,फेज -2 नई दिल्ली -110020" पर लिखें या 011 -41611861 पर फोन करें। आप किताब को http://pustak.org/home.php?bookid=3458 पर आर्डर कर के घर बैठे भी मंगवा सकते हैं।

अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले आईये इरफ़ाना साहिबा की कलम का एक और चमत्कार आपको दिखाते चलें :-

जो हम नहीं हैं कोई सूरत -ऐ-करार तो है 
किसी को तेरी मोहब्बत पे ऐ'तबार तो है 

यही बहुत है कि इस कारज़ार-ऐ-हस्ती में 
उदास मेरे लिए कोई ग़मगुसार तो है 
कारज़ार-ऐ-हस्ती = जीवन संग्राम ; ग़मगुसार= सहानुभूति रखने वाला 

रह-ऐ-तलब में कोई हमसफ़र मिले न मिले 
निगाह-ओ-दिल पे हमें अपने इख्तियार तो है

15 comments:

अनुपमा पाठक said...

कमाल है... !!
हमेशा की तरह संग्रहणीय पोस्ट!

आपकी प्रतिबद्धता के प्रति नतमस्तक!!

Parmeshwari Choudhary said...

Beautiful !!

नीरज गोस्वामी said...

Received on face book:-

"परस्तिशों में रहे मह्व ज़िन्दगी मेरी
सनमकदों में रहे वो मगर खुदा न लगे "

वाह!
हमेशा की तरह संग्रहणीय पोस्ट!
*** *** ***
आपकी प्रतिबद्धता और अथक श्रम के प्रति नतमस्तक!!
Anupama Pathak

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:-

बहुत नायाब तोहफा ..........


Pramod Kumar

Delhi

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:-

कमाल सर ! कमाल !! ऐसे कमाल आप ही कर सकते हैं।

Amitabh Meet

Kolkatta

कविता रावत said...

नगीने ढूंढ लाते हैं आप...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

ख़ूबसूरत कलाम की ख़ूबसूरत पेशकश के लिए
तहे दिल से शुक्रिया।
कमाल का चयन!
उम्दा तनक़ीद!

Anonymous said...

आभार

तिलक राज कपूर said...

ईमानदारी की बात की ये नाम कभी सुना न पढ़ा। आप खूब समय निकाल कर नए नए नाम सामने लाते रहें यही दुआ है।

Parul Singh said...

वहां तो जो भी गया लौट कर नहीं आया
मुसाफिरों को तिरे शहर की हवा न लगे
बहुत ख़ूबसूरत अशआर हैं सभी । बधाई.. एक और अच्छे लेखन की। उर्दू सीखने का ख़्याल अच्छा है।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बेहतरीन रचनाकार से परिचय करवाने के लिए आप को साधुवाद......

Jyoti khare said...

आपकी सार्थक और सृजनात्मक पहल को नमन
उत्कृष्ट प्रस्तुति
साधुवाद

आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
सादर

नीरज गोस्वामी said...

Received om e-mail :-

मोहब्बतों से शनासा खुदा तुम्हें न करे
कि तुमने देखी नहीं दिल की बेकरारी भी

जो हम नहीं हैं कोई सूरत -ऐ-करार तो है
किसी को तेरी मोहब्बत पे ऐ'तबार तो है

गिला है मुझको अपनी ज़िन्दगी से
मैं कब तेरी मोहब्बत से खफा हूँ

आपने चुनिन्दा अशआर पेश किये हैं |बहुत ही अच्छे लगे

अपने नीरज से हमको आस तो है
शेर खुशरंग ,खुश लिबास तो है


Ramesh Kanval
Patna

Asha Joglekar said...

Aap Jaisa Johari ho to heron ko khoj hee leta hai.

नीरज गोस्वामी said...

Received on e-mail :-

लगाओ दिल पे कोई ऐसा ज़ख्म-ए-कारी भी
कि भूल जाये ये दिल आरज़ू तुम्हारी भी
ज़ख्म-ए-कारी = भरपूर घाव

मोहब्बतों से शनासा खुदा तुम्हें न करे
कि तुमने देखी नहीं दिल की बेकरारी भी


अजीब बात है कि अक्सर तलाश करता था
वो बेवफ़ाई के पहलू मिरी वफाओं में

खूबसूरत अशआर के हवाले से इरफान अज़ीज़ की शायरी से आप ने अपने अनूठे अंदाज़ में खूबसूरती से परिचय कराया नीरज भाई ! इरफान अज़ीज़ साहिबा और आप को बहुत बहुत मुबारकबाद !

Alam Khursheed