Monday, November 9, 2015

किताबों की दुनिया -113

कितने झुरमुट कट गए बांसों के , किसको है पता 
इक सुरीली-सी, मधुर-सी, बांसुरी के वास्ते 

रतजगे, बैचेनियां, आवारगी और बेबसी 
इश्क ने क्या क्या चुना है पेशगी के वास्ते 

झूठ की दुनिया है ये, अहले-सुखन ! लेकिन सुनो 
कुछ तो सच्चाई रखो तुम, शायरी के वास्ते 

सच्चाई रखने की बात कहने और करने में बहुत फर्क होता है। सच्चाई की बात रखने के लिए अदम्य साहस की जरुरत होती है। हमारे आज के शायर के पास साहस की कोई कमी नहीं। यही कारण है कि हमें उसकी बातों पे यकीन होता है। शायर तो कोई भी हो सकता है लेकिन वो शायर जो अपने हाथों में बन्दूक थामे देश के लिए दुश्मन का सीना छलनी करने वाला भी हो और फिर उन्हीं हाथों में कलम थामे लोगों के सीनों में मोहब्बत के फूल उगा देने की कुव्वत भी रखता हो विरला ही होता है। हमारी "किताबों की दुनिया" श्रृंखला में आज हम उसी युवा जाँबाज शायर की शायरी की चर्चा करेंगे।

बारिश की इक बूँद गिरी जो टप से आकर माथे पर 
ऐसा लगा , तुम सोच रही हो शायद मेरे बारे में 

हौले-हौले लहराता था, उड़ता था दीवाना मैं 
रूठ गई हो जब से तो इक सुई चुभी गुब्बारे में 

फ़िक्र करे या जिक्र करे ये, या फिर तुमको याद करे 
कितना मुश्किल हो जाता है दिल को इस बँटवारे में 

इस पोस्ट को लिखते वक्त ये मुश्किल आज मुझे भी हो रही है। तय करना मुश्किल हो रहा है कि शायर का जिक्र करूँ या उनकी किताब "पाल ले इक रोग नादाँ " का। इस किताब से मेरा परिचय तो सिर्फ साल भर पुराना है लेकिन इसके शायर से मेरा परिचय तो बरसों का है। सन 2012 सिहोरे में गुज़ारी सर्द रात की याद अभी भी ज़ेहन में ताज़ा है जब चुम्बकीय व्यक्तित्व के इस बाँके अलबेले फक्कड़ शायर से पहली बार रूबरू मुलाकात हुई। जो भी एक बार "गौतम राजरिशी", जी हाँ ये ही नाम है हमारे आज के इस शायर का, से मिल लेता है वो उनका दीवाना हुए बिना नहीं रह सकता। अगर आपको कहीं मेरी उनके या उनकी शायरी के प्रति कही बातों में अतिरेक झलके तो आप मुझे उसे मेरी उनके प्रति दीवानगी समझ कर मुआफ करें ।



लिखती हैं क्या किस्से कलाई की खनकती चूड़ियाँ 
जो सरहदों पर जाती हैं, उन चिट्ठियों से पूछ लो 

होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अबके आम में 
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो 

होती हैं इनकी बेटियां कैसे बड़ी रह कर परे 
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो 

सभी प्रकार की सुविधा से भरा अपना घर बार, परिवार और खास तौर पर नन्हीं बेटी तान्या, अपने संगी-साथी , बाग़- बगीचे, फूल-तितलियाँ, नदियां-तालाब, रंग बदलते मौसम , चमकते सूरज से कोसों दूर बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर सीमा के पास बने बंकर में समय बिताते, लहू जमा देने वाली ठण्ड से झूझते, हर वक्त मौत की आहट सुनते जैसे गैर शायराना मौहोल में जिस तरह की शायरी गौतम ने की है उसे पढ़ कर कभी होटों पर मुस्कान खिलती है तो कभी आँखें छलछला उठती हैं। ये गौतम का करिश्मा ही है कि उसने बंकर के काले, सफ़ेद और घूसर से दिखाई देने वाले रंगों को अपनी बेमिसाल शायरी की मदद से इंद्रधनुषी जामा पहना दिया है। दिल करता है उसे सेल्यूट करते हुए लगातार तालियां बजाता रहूँ।

मिट गया इक नौजवाँ कल फिर वतन के वास्ते 
चीख तक उठ्ठी नहीं इक भी किसी अखबार में 

कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर 
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योंहार से 

मुठ्ठियाँ भींचे हुए कितने दशक बीतेंगे और 
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से 

बैठता हूँ जब भी 'गौतम' दुश्मनों की घात में 
रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से 

किताब की भूमिका में डा. राहत इंदौरी लिखते हैं कि " गौतम की शायरी में मुझे नासिर काज़मी की शायरी बिखरी नज़र आती है। मुझे उनकी शायरी में जहाँ बशीर बद्र के महबूब का खूबसूरत, मासूम और सलोना चेहरा, उदास मुस्कराहट और आँचल का नाज़ुक लम्स भी महसूस होता है वहीँ फ़िराक गोरखपुरी की शोख़ उदासी भी मयस्सर होती है। मालूम होता है, गौतम की ग़ज़लों की सरहदें नासिर, बशीर और फ़िराक की सरहदों से दूर नहीं है।
लेकिन जो बात गौतम को अपने समकालीन शायरों से अलग करती है, एक नयी पहचान देती है वो है गौतम की इमेजरी ---रोजमर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल होनी वाली चीजें और आम जुबान में पुकारी जाने वाली बातें कुछ इसतरह उनके अशआर में घुल-मिल कर उभरती है कि बस दाद निकलती रहती है पढ़ने के बाद।"

उँड़स ली तूने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली 
हुई ये ज़िन्दगी इक चाय ताज़ा चुस्कियों वाली 

भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं 
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिठ्ठियों वाली 

खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन 
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली 

राहत साहब की बात की ताकीद करती गौतम की एक ग़ज़ल के इन शेरों पर गौर फरमाएं और देखें कि किस बला की ख़ूबसूरती से वो ऐसे नए लफ़्ज़ों को मिसरों में पिरोते हैं जो अमूमन अब तक ग़ज़ल की हदों दूर ही रखे गए हैं। मज़े की बात ये है कि ये लफ्ज़ शेर को नया मानी देते हैं और लगता है जैसे ये लफ्ज़ इन शेरों के लिए ही इज़ाद किये गए हों , ये गौतम का सिग्नेचर स्टाइल है :-

सुब्ह के स्टोव पर चाय जब खौल उठी 
ऊंघता बिस्तरा कुनमुना कर जगा 

धूप शावर में जब तक नहाती रही 
चाँद कमरे में सिगरेट पीता रहा 

दिन तो बैठा है सीढ़ी पे चुपचाप से 
और टेबल पे है फोन बजता हुआ 

रात की सिलवटें नज़्म बुनने लगीं 
कँपकपाता हुआ बल्ब जब बुझ गया 

वीरता के लिए पराक्रम पदक और सेना मेडल प्राप्त सौम्य व्यक्तित्व के मालिक मृदु भाषी गौतम, जो वर्तमान में कर्नल के पद पर एक इन्फेंट्री बटालियन का कमांड संभाले हुए हैं, की ग़ज़लें अपनी नजाकत और नए लहज़े से पाठकों को हैरान करती हैं तभी तो उन्हें 'हंस' ,'वागर्थ' 'आजकल', 'कादम्बिनी', 'कथादेश' , 'कथाक्रम' , ' बया' , ' काव्या', 'लफ्ज़', 'शेष' , 'कृति' ' हिन्द चेतना 'और 'अहा ज़िन्दगी ' जैसी हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं द्वारा नियमित रूप से प्रकाशित किया जाता है। पाठकों का एक बहुत बड़ा वर्ग उनकी नयी ग़ज़लें की प्रतीक्षा में हमेशा पलक-पांवड़े बिछाए रहता है।

उन होंठों की बात न पूछो, कैसे वो तरसाते हैं 
इंग्लिश गाना गाते हैं और हिंदी में शरमाते हैं 

चाँद उछल कर आ जाता है कमरे में जब रात गये 
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग जाते हैं 

घर-घर में तो आ पहुंचा है मोबाइल बेशक, लेकिन 
बस्ती के कुछ छज्जे अब भी आईने चमकाते हैं 

लगभग कॉफी टेबल साइज़ की इस निहायत ही खूबसूरत किताब को श्री पंकज दीक्षित जी ने अपने अद्भुत रेखा चित्रों से संवारा है। शिवना प्रकाशन, सिहोरे के श्री सनी गोस्वामी की आकर्षक आवरण डिजाइन और शहरयार अमजद खान की बेजोड़ कम्पोजिंग-लेआउट ने किताब में चार चाँद लगा दिए हैं
इस किताब में सहरसा (बिहार) निवासी कर्नल गौतम की 104 ग़ज़लें संगृहीत हैं जिन्हें ग़ज़ल प्रेमियों के साथ साथ इस देश से प्यार करने वाले हर व्यक्ति को भी जरूर पढ़ना चाहिए ताकि उन्हें सिर्फ गौतम के ही नहीं बल्कि उन जैसे अनेक फ़ौज की कड़क वर्दी में सामने नज़र आते भावहीन चेहरों के नकाब के पीछे छिपे अति संवेदनशील इंसान के ज़ज़्बात का भी थोड़ा बहुत एहसास हो।

रह गयी उलझी किचन में भीगी जुल्फों की घटा 
और छत पर 'धूप' बेबस हाथ मलती रह गयी 

चौक पर 'बाइक' ने जब देखा नज़र भर कर उधर 
कार की खिड़की में इक 'साड़ी' संभलती रह गयी 

एक कप कॉफी का वादा भी न तुमसे निभ सका 
कैडबरी रैपर के अंदर ही पिघल कर रह गयी 

किताब की सभी लाजवाब ग़ज़लों लिए आप कर्नल गौतम को सबसे पहले उनके मोबाइल न 09759479500 पर दाद दें और फिर किताब की प्राप्ति के लिए शिवना प्रकाशन सीहोर से +917562405545 पर संपर्क करें। ये किताब अमेजन, फ्लिपकार्ड आदि साइट पर ऑन लाइन भी उपलब्ध है।

ठिठुरी रातें, पतला कम्बल, दीवारों की सीलन --- उफ़ 
और दिसंबर ज़ालिम उस पर फ़ुफ़कारें है सन सन --उफ़ 

बूढ़े सूरज की बरछी में जंग लगी है अरसे से 
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन --उफ़ 

पछुआ के ज़ुल्मी झोंके से पिछवाड़े वाला पीपल 
सीटी मारे दोपहरी में जैसे रेल का इंजन --उफ़ 

पोस्ट की लम्बाई और आप के पढ़ने का धैर्य आड़े आ रहा है वरना दिल तो पूरी किताब आप तक पहुँचाने का कर रहा है। पन्ने पलटते हुए अफ़सोस हो रहा है कि अरे ये शेर तो पढ़वाने से रह ही गए !!!!!

खैर, आईये चलते चलते उनकी उस ग़ज़ल के ये शेर पढ़ते चलें जिन्हें मैं जब मौका मिले उनसे सुनाने का हमेशा आग्रह करता हूँ :-

दूर उधर खिड़की पे बैठी सोच रही हो मुझको क्या ? 
चाँद इधर छत पर आया है थक कर नीला नीला है 

बादल के पीछे का सच अब खोला तेरी आँखों ने 
तू जो निहारे रोज इसे तो अम्बर नीला नीला है 

इक तो तू भी साथ नहीं है, ऊपर से ये बारिश उफ़ 
घर तो घर, सारा का सारा दफ्तर नीला नीला है



8 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, तीन साधू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Parul Singh said...

उधर खिड़की पे बैठी सोच रही हो मुझको क्या ?
चाँद इधर छत पर आया है थक कर नीला नीला है
एक कप कॉफ़ी का वादा भी ना तुम से निभ सका......
जैसे रुमानी शेर हों या मुट्ठियाँ भींचे हुए..... जैसा गम्भीर मुद्दे को उठाता शेर गौतम राजरिशी जी की शायरी को सुन कर वाह वाह कह फिर सुनने को, फिर पढ़ने को दिल करता है। जैसे सहज,सरल व संकोची की हद तक विनम्र व्यक्ति गौतम जी हैं, उन की ग़ज़ले उतनी ही मुखर हैं। उनकी ग़ज़लों मे प्रयुक्त शब्दों से रोज़ाना का ऐसा काम पड़ता है कि हर शेर अपनी ज़िंदगी का ही लगता है।रोज़मर्रा के जीवन मे गुँथे रोमांस का इतना प्यारा वर्णन मैंने कभी नही पढ़ा इस बात को मैं दावे से कह सकती हूँ । चेहरे पर शर्म और मुस्कान व हँसी देने वाली गौतम जी की शायरी को हमारा भी सलाम। वो ऐसे ही लिखते रहें और अपने पाठकों के दिलों मे बसे रहें । आमीन।

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र said...

गौतम जी की ग़ज़लें एक अरसे से पढ़ रहा हूँ और उनका ये अलग अंदाज़ लगातार चमत्कृत कर रहा है। आपने जो चर्चा की है वो कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं है। "पाल ले इक रोग नादाँ" सचमुच इसकी हकदार है। आभार आपका।

Onkar said...

बेहतरीन

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

नीरज जी, गौतम जी से तो हम ब्लॉग के माध्यम के परिचित हैं ही....आप के माध्यम से उनकी पुस्तक के बारे में चर्चा बहुत अच्छी लगी.....बहुत बहुत धन्यवाद....

नीरज गोस्वामी said...

Received on e-mail:

Neeraj Bhai...Sunder aur Bahut khoob

Ramesh Kanwal

Patna

Asha Joglekar said...

कर्नल, गौतम राजरिशी (राजऋषी)(जी) को लगता है कि काफी अर्से से जानती हूँ तब से जब वे मेजर गौतम थे । मैने नया नया ही ब्लॉग पर लिखना शुरू किया था। उनका गज़ल कहने का अंदाज़ खास उनका है और उनके खास पाठकों को बहुत प्रिय है। कभी मिले नही लेकिन अनजान नही लगते। आपने तो नीरज जी उनकी चुनिंदा गजलों का रस छलका दिया।

प्रदीप कांत said...

दूर उधर खिड़की पे बैठी सोच रही हो मुझको क्या ?
चाँद इधर छत पर आया है थक कर नीला नीला है

बादल के पीछे का सच अब खोला तेरी आँखों ने
तू जो निहारे रोज इसे तो अम्बर नीला नीला है

इक तो तू भी साथ नहीं है, ऊपर से ये बारिश उफ़
घर तो घर, सारा का सारा दफ्तर नीला नीला है

गौतम के फेन तो हम भी हैं जी