Monday, March 17, 2014

किताबों की दुनिया -92

नगर में प्लास्टिक की प्लेट में खाते तो हैं लेकिन
मुझे वो ढाक के पत्तल ओ दोने याद आते हैं
 
कभी मक्का की रोटी साग या फिर मिर्च की चटनी
पराठें माँ के हाथों के तिकोने याद आते हैं
 
मेरा बेटा तो दुनिया में सभी से खूबसूरत है
कहा माँ ने लगा के जो डिठौने याद आते हैं
 
यहाँ तो 'वज्र' अब बिस्तर पे बस करवट बदलता है
उसे वो गाँव के सादे बिछौने याद आते हैं

शायरी में देशज शब्दों जैसे ढाक ,पत्तल, डिठौने , बिछौने आदि का प्रयोग बहुत मुश्किल से पढ़ने में आता है। रोजी रोटी या अन्य कारणों से शहर आने के बाद बहुत से शायरों ने अपने गाँव की याद में बेहतरीन शेर कहें हैं। आज हम आपका परिचय एक ऐसे ही शायर और उसकी किताब से करवा रहे हैं जो दिल्ली जैसे महानगर में आने के बाद अपने गाँव को बहुत शिद्दत से याद करता है। अपने शेरों में गवईं शब्दों के माध्यम से उसने गाँव की खुश्बू फैलाई है।

खेल खिलोने लकड़ी का घोडा सब ओछे थे
मुझको तो अम्मा की कोली अच्छी लगती थी
 
कमरख आम करौंदे इमली आडू और बड़हल
झरी नीम से पकी निबोली अच्छी लगती थी
 
रोज बुलाता था मैं जिसको आवाजें दे कर
वो नन्हीं प्यारी हमजोली अच्छी लगती थी

ये शायरी पाठक को एक ऐसे संसार में ले जाती है जिसे समय अपने साथ कहीं ले गया है। इस संसार कि अब सिर्फ दिलकश यादें ही हम सब के जेहन में ज़िंदा हैं. बहुत से युवा पाठक शायद इस शायरी को आत्मसात न कर पाएं क्यूँ कि इसकी गहराई समझने के लिए संवेदनशील होने के अलावा उस वक्त को समझना भी जरूरी है जब ज़िन्दगी में भागदौड़ नहीं थी और रिश्तों में गहराई थी।

कभी मीठा कभी तीखा कभी नमकीन होता था
हमारे गाँव का मौसम बहुत रंगीन होता था
 
सवेरे छाछ के संग रात की बासी बची रोटी
वहाँ हर शख्स रस की खीर का शौक़ीन होता था
 
वहाँ गोबर लिपे चौके कि चौरे पर उगी तुलसी
उबलता दूध चूल्हे पर अजब सा सीन होता था

गाँव को इस अनूठे अंदाज़ में अपनी शायरी में पिरोने वाले शायर का नाम है श्री पुरुषोतम'वज्र' जिनकी किताब "कागज़ कोरे" का जिक्र हम"किताबों की दुनिया"श्रृंखला में करने जा रहे हैं .


पंडित “सुरेश नीरव” जी ने ‘वज्र’ साहब कि शायरी के बारे में किताब की भूमिका में लिखा है कि " गाँव,बचपन, माँ ,पर्यावरण और मानवीय रिश्ते वज्र जी कि ग़ज़लों के केंद्रीय तत्व हैं. मनुष्यता इन ग़ज़लों के ऋषि प्राण हैं. माँ किसी जिस्म का नाम नहीं है यह वो अहसास है जो हमारी धमनियों में बसता है. मुश्किल में जो सुरक्षा कवच की तरह तरह हमेशा साथ देता है :-

मुश्किल में जब जाँ होती है
तब होठों पर माँ होती है
 
गर हों साथ दुआएं माँ की
हर मुश्किल आसाँ होती है
 
****
 
हवाएं साथ चलती हैं फ़िज़ायें साथ चलती हैं
मुझे रास्ता दिखाने को शमाएँ साथ चलती हैं
डरूँ मैं आँधियों से क्यूँ कि तूफाँ क्या बिगाड़ेगा
कि मेरे सर पे तो माँ कि दुआएं साथ चलती हैं
 
****

पुरुषोतम जी पिछले चार दशकों से पत्रकारिता से सम्बन्ध रहे हैं उन्होंने सांध्य वीर अर्जुन समाचार पत्र के मुख्य संवाददाता के रूप में पत्रकारिता की उल्लेखनीय सेवाएं कीं।वे पत्रकारिता में भारतीय विद्द्या भवन द्वारा "कन्हैया लाल माणिक लाल " पुरूस्कार के अलावा ''मैत्री मंच' ,'मातृ श्री' , 'आराधक श्री', 'संवाद पुरूस्कार ' , ' भारती रत्न ' , 'राजधानी गौरव' , जैसे 40 से अधिक सम्मानों से पुरुस्कृत किये गए हैं। राजनैतिक आन्दोलनों में 32 से अधिक बार जेल यात्रा की और आपातकाल में 16 माह तक जेल में रहना पड़ा। वज्र जी के ग़ज़लों के अलावा हास्य व्यंग और कविता संग्रह भी छप चुके हैं।

अब पहले सी बात कहाँ
तख्ती कलम दवात कहाँ
 
कुआँ बावड़ी रहट नहीं
झड़ी लगी बरसात कहाँ
 
धुआँ भरा है नगरों में
तारों वाली रात कहाँ
 
चना-चबैना , गुड़ -धानी
अब ऐसी सौगात कहाँ

" कागज़ कोरे " वज्र जी का तीसरा ग़ज़ल संग्रह है , इस से पूर्व सन 2001 में " इक अधूरी ग़ज़ल के लिए " और सन 2005 में "हाशिये वक्त के " ग़ज़ल संग्रह आ चुके हैं। इसका प्रकाशन " ज्योति पर्व प्रकाशन " 99 , ज्ञान खंड -3 , इंदिरापुरम , गाज़ियाबाद ने किया है। आप इस पुस्तक की प्राप्ति के लिए प्रकाशक को 9811721147 पर संपर्क कर सकते हैं।

रहज़न भी घूमते हैं अब खाकी लिबास में
कातिल छिपे हुए थे विधायक निवास में
 
औरत के हक़ में उसने जब आवाज़ की बुलंद
अस्मत उसी की लुट गयी थाने के पास में
 
हम तुमको सराहें और तुम हमको सराहो
यूँ ही गुज़ारी उम्र बस वाणी विलास में

हाल ही में दिल्ली में संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेले के दौरान खरीदी इस किताब को पढ़ने के बाद मुझसे रुका नहीं गया और बधाई देने के लिए 14 अक्टूबर 1953 को मेरठ में पैदा हुए , पुरुषोतम जी को उनके मोबाइल न 9868035267 पर फोन लगाया। उधर से हेलो कि आवाज सुनते ही मैंने अपना संक्षिप्त परिचय दिया और एक ही सांस में उनकी किताब से शेर पढ़ते हुए ग़ज़लों की धारा-प्रवाह प्रशंशा शुरू कर दी , जब मैंने अपनी बात पूरी कर ली तो उधर से जवाब आया ग़ज़लों और किताब की प्रशंशा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नीरज जी मैं पुरुषोतम जी का बेटा बोल रहा हूँ , पापा का देहावसान 30 दिसंबर 2013 को हो गया था। आज अगर पापा आपकी बातें सुनते तो बहुत खुश होते। मैं बहुत देर तक कुछ बोल ही नहीं पाया . संवेदना के शब्द जबान से चिपक से गए, जेहन में रहे तो उनकी ग़ज़ल के ये शेर :-

लड़ते-लड़ते इन अंधेरों में कहीं खो जायेंगे
पीढ़ियों के वास्ते हम रौशनी बो जायेंगे
 
दुश्मनी कि इन्तहा जब एक दिन हो जायेगी
फिर हमेशा के लिए हम दोस्तों सो जायेंगे
 
याद आएगी हमारी इस सफ़र के बाद भी
उम्र का लम्बा सफ़र है एक दिन तो जायेगें

आईये हम सब ऐसे विलक्षण ग़ज़लकार की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें।
 

17 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

परिचय का आभार, सहज शब्दों में स्मृतियाँ की उलाहना।

प्रवीण पाण्डेय said...

*स्मृतियों

सदा said...

संवेदना के शब्द जबान से चिपक से गए,

लड़ते-लड़ते इन अंधेरों में कहीं खो जायेंगे
पीढ़ियों के वास्ते हम रौशनी बो जायेंगे

दुश्मनी कि इन्तहा जब एक दिन हो जायेगी
फिर हमेशा के लिए हम दोस्तों सो जायेंगे

बिल्‍कुल सच कहा आपने .... परिचय के लिये आभार
सादर

वाणी गीत said...

कई शब्द पढ़कर कुछ भूला सा याद आता है कि ऐसे भी तो शब्द होते हैं!
आभार परिचय के लिए !

राजीव कुमार झा said...

कुछ भूले बिछुड़े शब्दों की याद ताजा हो आई.

Vaanbhatt said...

कलम के सिपाही को विनम्र श्रद्धांजली...सहज शब्दों में गूढ़ सन्देश देने वाले पुरुषोत्तम जी से रूबरू करने के लिये धन्यवाद...

अरुण चन्द्र रॉय said...

ये किताब प्रकाशित करने का सौभाग्य ज्योतिपर्व को मिला। इस से पहले किताब चर्चित हो पाती व्रज जी चले गए। बहुत बढ़िया ग़ज़लकार हैं वे। और उतने बढ़िया है व्यक्ति थे। सजग पत्रकार थे। नीरज जी एक बढ़िया समीक्षा के लिए आपका बहुत बहुत बहुत आभार।

अरुण चन्द्र रॉय said...

ये किताब प्रकाशित करने का सौभाग्य ज्योतिपर्व को मिला। इस से पहले किताब चर्चित हो पाती व्रज जी चले गए। बहुत बढ़िया ग़ज़लकार हैं वे। और उतने बढ़िया है व्यक्ति थे। सजग पत्रकार थे। नीरज जी एक बढ़िया समीक्षा के लिए आपका बहुत बहुत बहुत आभार।

dr.mahendrag said...

कभी मक्का की रोटी साग या फिर मिर्च की चटनी
पराठें माँ के हाथों के तिकोने याद आते हैं
सुन्दर प्रस्तुति,बचपन का अपना आनंद है.जो फिर कभी नहीं मिलता.

PRAN SHARMA said...

AESE BADHIYA ASHAAR KAHNE WAALE
DIVANGAAT SHAAYAR KEE ATMA KO
ISHWAR SHANTI PRADAAN KARE .

ankur goswamy said...

ये शायरी पाठक को एक ऐसे संसार में ले जाती है जिसे समय अपने साथ कहीं ले गया है। इस संसार कि अब सिर्फ दिलकश यादें ही हम सब के जेहन में ज़िंदा हैं. .......

सत्य. सरल. सुन्दर !!

नीरज गोस्वामी said...

Msg received on e-mail:-


BHAI NEERAJ JI
NAMASMTY,
HAMARE PURANE MITRA SHRI PURUSHOTTAM VAJRA KI KITAB KA AAPNE JIKRA KIYA- TAREEF KI, BAHUT ACHHA LAGA-- WO HAMARI KAVI GOSHTHIYON MEIN NIYMIT AATE THE--
PICHLE VARSH WO DILYSIS PAR THE PARANTU APNE BETE (JO VIR ARJUN AKHBAAR MAIN KARYA KARTA HAI) KE SAATH GOSHTHI MEIN PADHARE AUR KAVITA PATH KIYA-- US WAKT KI PHOTO MEIN SEARCH KAR KE FACEFOOK PAR SHEEGRA POST KAROOGA--
PICHHLE VARSH OCTOBER, 13 MEIN UNKI SHASHTI -PURTI KA KARYAKARAM THA--
YEH LINES BAHUT ACHHI HAIN ---

खेल खिलोने लकड़ी का घोडा सब ओछे थे
मुझको तो अम्मा की कोली अच्छी लगती थी

कमरख आम करौंदे इमली आडू और बड़हल
झरी नीम से पकी निबोली अच्छी लगती थी

YEG PANKTIYAN TO UNKI ''YAD'' KO HAMESH JINDA RAKHENGI--

लड़ते-लड़ते इन अंधेरों में कहीं खो जायेंगे
पीढ़ियों के वास्ते हम रौशनी बो जायेंगे

दुश्मनी कि इन्तहा जब एक दिन हो जायेगी
फिर हमेशा के लिए हम दोस्तों सो जायेंगे

याद आएगी हमारी इस सफ़र के बाद भी
उम्र का लम्बा सफ़र है एक दिन तो जायेगें

BHAI PURUSHOTTAM VAJRA KO ''VINAMRA SHRADHANJALI''--
DHANYAVAD SAHIT
SAADAR-
-OM SAPRA, SAHITYA SACHIV,
MITRA SANGAM PATRIKA- HINDI MONTHLY
N-22, DR. MUKHERJI NAGAR, DELHI-9

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

पुरुषोत्तम जी के लड़के को आप की आवाज़ सुन कर अपने पापा पर और अधिक गर्व हुआ होगा, निश्चय ही। आप बढ़िया काम कर रहे हैं, नीरज जी।

निवेदिता श्रीवास्तव said...

बहुत अच्छी सरल और सहज कविताएं पढ़ा दीं आपने ,आभार !

तिलक राज कपूर said...

स्‍वर्गीय पुरुषोतम'वज्र' को श्रद्धांजलि।
इन ग़ज़लों से यह स्‍पष्‍ट है कि ग़ज़ल में सरलता और स्‍थानीय शब्‍द संप्रेषणीयता सहज करते हैं।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (12-04-2014) को ""जंगली धूप" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1580 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Unknown said...

शायद ही कोई हिंदी गजल में इस मुकाम पर पहुंच पाया होगा स्वगीया पुरषोत्तम वज्र एक मील का पठार साबित हुए चाहे उन्होंने हास्य रास हो या वीर रास हो हो लेख़क के टूर पर तो उनकी कितनी ही उपलब्धिा संध्या वीर अर्जुन समाचार पत्र में दिहक्ति थी. हिंदी गजले हर जगह उन्होंने अपनी घरी छाप छोड़ी है! वज्र जी को काम से काम ३० से ज्यादा राष्ट्रय पुरस्कारों ओर अगणित बार समान्नित किया गया है फिर चाहे वो राजधानी गौरव सम्मान हो, साहित्य गौरव,नेहरू शताब्दी पुरस्कार हो या काजी तनवीर पुरस्कार हो सभी पुरस्कारों के नाम लिखने भेथे तो १०० से ज्यादा नाम है! जितने याद थे लिख दिए बस अब तो वज्र अपनी लिखी कविताओँ एव ग़ज़लों के माध्यम से हमेशा अमर हो चेले है.