Monday, September 5, 2016

किताबों की दुनिया -127

किताबें कई तरह की होती हैं , कुछ किताबें होती हैं जिनकी तरफ देखने का मन नहीं करता , कुछ को देख कर अनदेखा करने का मन करता है , कुछ को हाथ में लेकर देख कर रख देने का मन करता है, पढ़ कर भूल जाने का मन करता है तो कुछ हमेशा याद रहती हैं लेकिन कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं ,जिन्हें देख कर एक पुराना फ़िल्मी गाना याद आ जाता है " देखते ही तुझे मेरे दिल ने कहा ज़िन्दगी भर तुझे देखता ही रहूँ। आज हम ऐसी ही किताब का जिक्र करेंगे जिसे देख-खोल कर मुंह से अपने आप ही ‘अहा’ निकल जाता है :

 मुझसे मेरा मन मत मांगो 
मन का भी इक मन होता है 

तुम आये मन यूँ महका ज्यूँ 
महका चन्दन-वन होता है 

सुंदरता होती है मन की 
तन तो पैराहन होता है 

शायर के मन की सुंदरता को खूबसूरत कलाम के ज़रिये बेहद दिलकश अंदाज़ में पेश करने वाली हमारी आज की किताब है "तीतरपंखी" जिसके शायर हैं जनाब 'मंगल नसीम' साहब !ये किताब हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में एक साथ प्रकाशित हुई है याने हिंदी में उर्दू शायरी पढ़ने वाले पाठकों के साथ साथ उर्दू पढ़ने वाले पाठक भी नसीम साहब की इस किताब में उनकी शायरी का लुत्फ़ उठा सकते हैं।


नहीं, हममें कोई अनबन नहीं है 
बस इतना है कि अब वो मन नहीं है 

मैं अपने आप को सुलझा रहा हूँ 
उन्हें लेकर कोई उलझन नहीं है 

मुझे वो गैर भी क्यों कह रहे हैं 
भला क्या ये भी अपनापन नहीं है 

मैं अपने दोस्तों के सदके लेकिन 
मेरा क़ातिल कोई दुश्मन नहीं है 

20 सितम्बर 1955 को खारी बावली पुरानी दिल्ली में जन्में ‘मंगल नसीम’ साहब आजकल शाहदरा दिल्ली के निवासी हैं, आपके पिता श्री रामेश्वर दत्त जी का दिल्ली में कथ्थे का बहुत बड़ा व्यापर था । एक व्यापारी के पुत्र का व्यापारी बनना जग जाहिर है लेकिन उसके ज़ेहन में शायरी का परवान चढ़ना किसी अजूबे से कम नहीं । अपने कॉलेज के दिनों से ही शायरी करने वाले मंगल नसीम साहब का 'तीतरपंखी " उनका दूसरा शेरी मजमुआ है जो सन 2010 में शाया हुआ, हैरत की बात ये है कि उनका पहला शेरी मजमुआ "पर नहीं अपने " सन 1992 में शाया हुआ था याने पहले और दूसरे शेरी मजमूओं के बीच 18 सालों का वक्फा है।

मुझको था ये ख्याल कि उसने बचा लिया 
और उसको ये मलाल कि ये कैसे बच गया 

उसको उदास देखके पहले ख़ुशी हुई 
पर फिर दिलो-दिमाग़ में कोहराम मच गया 

कोई तवील उम्र भी यूँ ही जिया 'नसीम' 
कोई ज़रा-सी उम्र में इतिहास रच गया 

नसीम साहब शायरों की उस फेहरिश्त में नहीं आते जिनके कलाम आये दिन रिसालों अखबारों में छपते हैं और जो हर दूसरे मुशायरे में नमूदार हो कर अपने अशहारों पर वाह वाही करने के लिए सामयीन के सामने गिड़गिड़ाते देखे जाते है, उनका शुमार उन शायरों की लिस्ट में बहुत ऊपर है जो कभी कभार लिखते हैं और जिनका लिखा पढ़ने सुनने वाले के दिल पर हमेशा के लिए अपनी जगह बना लेता है।

वो क़र्ज़ साँसों का देता है अपनी शर्तों पर 
पठान सूद पे जैसे उधार देता है 

हरेक क़ुर्ब में दूरी है, थोड़ी देर के बाद 
पिता भी गोद से बच्चा उतार देता है 

ये मत कहो वो भले का सिला नहीं देता 
सिला वो देता है, देता है, यार देता है 

और शायद यही वजह है की उनकी दो किताबों के बीच इतना लंबा अंतराल आया है. वो खुद इस बात को मानते हुए अपनी इस किताब की भूमिका में लिखते भी है कि "अपनी कमगोई और कमहौसलगी को देखते हुए एक और किताब के बारे में सोच तक न पाता था मैं ,सोचता था कम से कम मुझसे तो एक किताब नहीं ही हो सकती। इसी सोच के चलते पूरे 18 बरस बीत गए। इन 18 बरसों में ,गाहे ब गाहे शेर कहता और अहबाब को सुना खुश हो रहता " ये पाठकों की खुश किस्मती है कि उनके एक चाहने वाले ने उनके पहले मजमुए के बाद आये कलाम को सिलसिलेवार ढंग से एक डायरी में दर्ज कर लिया और उसी वजह से ये किताब मंज़रे आम पर आयी। 

तीतरपंखी बादल छाया, सबको आस बंधी 
लेकिन अबके तीतरपंखी भी दिल तोड़ गया 

उससे ही दूरी रक्खूँ , उसकी ही राह तकूँ 
कैसी उलझन से वो मेरा नाता जोड़ गया 

अपना अपना पागलपन है, पागल कौन नहीं 
बस इतना भर कहके वो पागल दम तोड़ गया 

कहते हैं कि तीतरपंखी बादल वो बादल होता है जिसके बरसने की संभावना प्रबल होती है अब ये बात सच है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन इस,किताब के हर पन्ने पर तीतरपंखी बादलों के छाया चित्रों से बरसते अशआर पाठक को अंदर तक भिगो देते हैं ।
मंगल नसीम साहब ने अपने समकालीन शायरों के मुकाबले कम कहा है लेकिन जो भी जितना भी कहा है बहुत पुख्तगी से कहा है। शायरी में लफ्ज़ बरतने का सलीका उन्होंने अपने उस्ताद कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय में प्राणी विज्ञानं के विभागाध्यक्ष जनाब सत्य प्रकाश शर्मा 'तफ़्ता' साहब से सीखा तभी उनके शेर पढ़ने सुनने वालों के सीधे दिल में उतर जाते हैं।

हवा में जब कभी तेरी छुअन महसूस होती है 
भरे ज़ख्मों में भी बेहद दुखन महसूस होती है 

कभी तो बज़्म में भी होता है एहसासे-तन्हाई 
कभी तन्हाई भी इक अन्जुमन महसूस होती है 

मुनासिब फासला रखिये भले कैसा ही रिश्ता हो 
बहुत कुर्बत में भी अक्सर घुटन महसूस होती है 

मशहूर फनकार जनाब ‘महेंद्र प्रताप 'चाँद’ इस किताब में लिखते हैं कि "मंगल नसीम का एक खास वस्फ़ ये है कि वो हवाई बातें नहीं करते बल्कि जो अपनी ज़ात पर गुज़रता महसूस करते हैं या अपने गिर्दो-पेश में जिन वाकियातो-हादिसात का मुशाहिदा करते हैं उन्हें अपने अशआर में बेहद ख़ूबसूरती से ढाल कर पेश कर देते हैं। वो अपने अशआर में हिंदी के साथ-साथ उर्दू व् फ़ारसी के लफ़्ज़ों को इस ख़ूबसूरती और चाबुकदस्ती के साथ इस्तेमाल करते हैं कि ये हसीन इम्तिज़ाज हिंदी और उर्दू दोनों जुबानों के अहले-अदब में उनकी कद्र और मक़बूलियत का ज़ामिन बन चुका है

'ठीक हो जाओगे' कहते हुए मुंह फेर लिया 
हाय क्या खूब वो बीमार का मन रखते हैं 

पैर थकने का तो मुमकिन है मुदावा लेकिन 
लोग पैरों में नहीं मन में थकन रखते हैं 

हम तो हालात के पथराव को सह लेंगे 'नसीम' 
बात उनकी है जो शीशे का बदन रखते हैं 

प्रसिद्ध ई पत्रिका 'रचनाकार' में मंगल नसीम साहब पर प्रकाशित एक लेख में विजेंद्र शर्मा साहब ने लिखा है कि “नई नस्ल के बहुत से शाइर मंगल नसीम साहब के शागिर्द है। इनके शागिर्द बताते हैं कि ऐसा उस्ताद नसीब वालों को ही मिलता है। अगर इनके शागिर्द रात के 2 बजे भी कभी इन्हें फोन करके अपना मिसरा सुनाते हैं तो नसीम साहब बड़ी ख़ुशी से उस वक़्त भी इस्लाह करते हैं। किसी उस्ताद का ऐसा किरदार देख कर मुझे कहीं सुनी हुई एक बात याद आ गई कि "दुनिया में ख़ुदा ने बाप और गुरु को ही ये सिफ्त अता की है कि उन्हें अपने बेटे और शिष्य से कभी इर्ष्या नहीं होती ये दोनों चाहते हैं कि मेरा बेटा / शिष्य मुझसे भी आगे जाए और अपना नाम रौशन करे। मंगल नसीम साहब की कही ग़ज़ल में एक भी मिसरा ऐसा नज़र नहीं आता जिसमें शाइरी के साथ-साथ उस्तादी ना झलकती हो ,इस बात की तस्दीक के लिए इनकी एक ग़ज़ल का मतला और दो शे'र मुलाहिज़ा फ़रमाएँ :---

यूँ ज़ख़्म उसने हाल में जलते हुए दिये 
रखने पड़े मिसाल में जलते हुए दिये  

पूजा के थाल जैसा वो चेहरा लगा मुझे 
दो नैन जैसे थाल में जलते हुए दिये  

मेहंदी रची हथेलियाँ लहरों ने चूम लीं 
छोड़े जब उसने ताल में जलते हुए दिये

इस ग़ज़ल में "जलते हुए दिये" रदीफ़ को निभाना अपने आप में अदभुत है। जैसा मैंने पहले भी ज़िक्र किया कि मंगल नसीम साहब शे'र कहने में जल्दबाजी नहीं करते और जब तक वे ख़ुद मिसरों की शे'र में तब्दीली पे मुतमईन नहीं हो जाते तब तक उस शे'र को काग़ज़ पे हाज़िरी भी नहीं लगाने देते।"

 नसीम साहब के खुद के प्रकाशन संस्थान 'अमृत प्रकाशन' से प्रकाशित इस निहायत दिलकश किताब की प्राप्ति के लिए आप या तो अमृत प्रकाशन से 011 -223254568 पर संपर्क करें या फिर सीधे नसीम साहब को इस खूबसूरत किताब के लिए उनके मोबाईल न 9968060733 पर बधाई देते हुए किताब प्राप्ति का रास्ता पूछ लें। आपके लिए अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले नसीम साहब की माँ पर कही एक ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वा कर विदा लेते हैं :

क्या सीरत थी क्या सूरत थी 
माँ ममता की मूरत थी 

पाँव छुए और काम हुए 
अम्मा एक महूरत थी 

बस्ती भर के दुःख-सुख में 
माँ इक अहम् ज़रुरत थी

15 comments:

Sunil Balani said...

बहुत खूब ..छोटे बहर में बड़ी बात ...
नहीं हम में कोई अनबन नहीं है
बस इतना है की अब वो मन नहीं है

mgtapish said...

Qabil e ehtram neerej ji sadar nivedan aap jaise srjankar ko aaj KAL kya likh rahen hain ye poochna apke srajan mein badha dalna hoga ! Apke lekh ka intezar rahta hai shairi karna shayad kuch logon K liye aasaan ho lekin samikcha karte hue vivekpurn dhang se prastut karna bahut dushkar karya hai
Bahut Sundarta se aaj aapne mangal naseem sb se milwaya naseem sb ko dheron daad ,badhai K sath apko ko bhi is lekhan K liye hardik badhai
Tapish

अशोक सलूजा said...

बहुत बहुत शुक्रिया नीरज जी....मेरे पास तो कोई उम्दा लफ्ज भी नही तारीफ़ के लिए...वाह और आह का संगम।

तिलक राज कपूर said...

मैं अपने आपको सुलझा रहा हूँ
उन्हें लेकर कोई उलझन नहीं है।

वाह, क्या उम्दा शेर है। वाह। ऐसा नहीं कि अन्य शेर कुछ कम हैं, लेकिन इसकी बात ही कुछ और है। वाह।

Unknown said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-09-2016) को "आदिदेव कर दीजिए बेड़ा भव से पार"; चर्चा मंच 2457 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को नमन।
शिक्षक दिवस और गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

pran sharma said...

Mangal NaseemJi Ki Ghazalen Aur Us Par Aapka Lekh khoob Ban Padaa Hai .

HARSHVARDHAN said...

आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति शिक्षक दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

प्रदीप कांत said...

पाँव छुए और काम हुए
अम्मा एक महूरत थी

Neeraj Bhai maza aa gaya

कल्पना रामानी said...

आपकी प्रस्तुति का बेसब्री से इंतज़ार रहता है नीरज जी, जिनको कभी पढ़ा नहीं, जाना नहीं, उनको सामने पाकर अद्भुत शांति मिलती है और ज्ञान बढ़ता है वो अलग। वैसे भी मैं किताबों की अपेक्षा वेब की दुनिया से अधिक जुड़ी हूँ तो मेरी अतृप्त प्यास को यहाँ जैसे सागर मिल जाता है।

आपके लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ

नकुल गौतम said...


'ठीक हो जाओगे' कहते हुए मुंह फेर लिया
हाय क्या खूब वो बीमार का मन रखते हैं

जब ऐसे अशआर पढ़ने को मिलते हैं तो मन मन्त्रमुग्ध हो जाता है। तारीफ़ के लिए शब्दों की कमी महसूस होती है।


इतनी शानदार शायरी से मुलाक़ात करवाने के लिए शुक्रिया sir।

Parul Singh said...

बहुत खूबसूरत समीक्षा। आपकी लेखनी अद्वितीय है।

दिगम्बर नासवा said...

तीतरपंखी की उड़ान सच में कमाल की है ... हर शेर अपनी नई ऊन्चाइये तलाश रहा है ... और आपकी लाजवाब अदायगी तो दुगना कमाल कर रही है ... बधाई है मंगल जी को

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

आदरणीय नीरज भाई साहब
किताबों की दुनिया में एक और मील पत्थर के लिए हार्दिक बधाई। दूरदराज़ से कई किस्म के फूलों से पराग लाकर शहद की सूरत उसे किताबों की दुनिया में ख़ूबसूरत अंदाज़ में परोसने की आपकी मेहनत और आपके लिए पाठक के तहेदिल से जो दुआएँ निकलती हैं मेरी दुआ भी उन्हीँ दुआओं में शामिल समझें। मंगल नसीम साहब के ख़ूबसूरत और नादिर(अद्वितीय)कलाम से हमें नवाज़ने के लिए शुक्रिया।

HindIndia said...

बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)

Parvez Muzaffar said...

Bahoot khoob
Bahoot achi shayri aur bahoot acha mazmoon.
Parvez Muzaffar